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________________ १२० श्री त्रिभंगीसार जी विशेषणों के साथ एक ही समय में जानने वाला है। इस प्रकार सर्व गुणों से शुद्ध निज शुद्ध आत्मा की वन्दना स्तुति करना, सच्ची देव पूजा है जिससे समस्त कर्म क्षय होते हैं। यही सम्यक्त्व मयी वन्दना स्तुति है जो कर्मासव का निरोध करने वाली है। २०. पदार्थ ,व्यंजन ,स्वरूप: तीन भाव गाथा-६५ पदार्थ पद विन्दंते, विंजनं न्यान दिस्टितं । स्वरूपं सुद्ध चिद्रूपं, विंजनं पद विंदकं ॥ अन्ववार्य-(पदार्थं पद विन्दंते) पदार्थ रूप आत्मा में परमात्म पद की अनुभूति करते हैं (विजनं न्यान दिस्टितं) व्यंजन रूप उसका लक्षण या चिन्ह देखते हैं जो शुद्ध ज्ञान, दर्शन स्वरूप है (स्वरूपं सुद्ध चिद्रूपं) जिसका स्वरूप सर्वांग शुद्ध चैतन्य मय अमूर्तिक है (विजनं पद विंदकं) ऐसे पदार्थ-व्यंजन स्वरूप को लक्ष्य में लेकर जो अपने पद का अनुभव करता है, उसके कर्मासव विला जाते हैं। विशेषार्थ-शुद्ध निश्चय नय से जो अपने आत्मा को अभेद, शुद्ध, एक, केवल, ज्ञातादृष्टा, परमानंदमय ध्याता है, यही ध्यान कर्मों के बन्धन को काटने वाला है। जो शुद्ध स्वरूप को ध्याता है वही परमात्मा हो जाता है। आत्मा ही परमात्मा है, चैतन्यमयी, शुद्ध ज्ञान व शुद्ध दर्शन का धारी, केवलज्ञान स्वभावी है। ऐसे अपने पदार्थ-व्यंजन स्वरूप का आराधन आसव निरोधक है। जब तक यह आत्मा स्व-पर के भिन्न-भिन्न निश्चित स्वलक्षण का ज्ञान न होने से प्रकृति के स्वभाव को जो कि अपने को बन्ध का निमित्त है, उसको नहीं छोड़ता; तब तक स्व-पर के एकत्व ज्ञान के कारण अज्ञानी है। स्व-पर के एकत्व दर्शन से मिथ्यादृष्टि है और स्व-पर की एकत्व परिणति से असंयत है और तभी तक पर के तथा अपने एकत्व का अध्यास करने से कर्ता है। जब यही आत्मा अपने और पर के भिन्न-भिन्न निश्चित स्वलक्षणों के ज्ञान के कारण प्रकृति के स्वभाव को जो कि अपने को बन्ध का निमित्त है, उसे छोड़ता है तब स्व-पर के भेदज्ञान से ज्ञायक है। स्व-पर के भेद दर्शन से दर्शक है और स्व-पर की भेद परिणति से संयत है तथा तब ही स्व-पर के एकत्व का अध्यास न करने से अकर्ता है। शुद्धनय का विषय जो ज्ञानस्वरूप आत्मा है, वह कर्तृत्व-भोक्तृत्व के १२१ गाथा-६६ भावों से रहित है, बन्ध मोक्ष की रचना से रहित है, परद्रव्य से और परद्रव्य के भावों से रहित होने से शुद्ध है। निजरस के प्रवाह से पूर्ण दैदीप्यमान ज्योतिरूप है और टंकोत्कीर्ण महिमामय है, ऐसे ज्ञानपुंज आत्मा की भावना भाने से कर्मास्रव का निरोध और मुक्ति की प्राप्तिहोती है। २१ .नन्द, आनन्द,सहजानन्द: तीन भाव गाथा-६६ आनन्द नन्द रूवेन, सहजानंद जिनात्मनं । सुखस्वरूप तत्वानं, नन्त चतुस्टय संजुत्तं ॥ अन्नवार्य-(आनन्द नन्द रूवेन) अपना स्वरूप नन्द, आनन्दमयी है (सहजानंद जिनात्मनं) परमेष्ठी पद में सहजानन्द मयी जिन आत्मा है (सुद्ध स्वरूप तत्वान) ऐसे आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानने से (नन्त चतुस्टय संजुत्तं) अनन्त चतुष्टय प्रगट होते हैं। विशेषार्थ-द्वन्द रहित अवस्था को नन्द कहते हैं, जो आत्मा का स्वभाव है। नन्द से आनन्द की वृद्धि होती है, जैसे दूज का चन्द्रमा स्वयं पूर्णमासी का चन्द्रमा हो जाता है। जब सम्यग्दर्शन प्रगट होता है तब स्वानुभव के जाग्रत होने से आत्मानन्द में मगनता होती है। चौथे, पाँचवें, छटवें गुणस्थान में उपयोग प्रमाद सहित हो जाता है तब आत्मानुभव हर समय नहीं रहता है । साधक को बुद्धिपूर्वक निमित्त मिलाकर उपयोग को शुद्धात्मा के अनुभव में जोड़ना पड़ता है। इस प्रकार स्वात्मानन्द में मगन होने से कर्म की निर्जरा होती है फिर अप्रमत्त गुणस्थान में होकर क्षीण मोह बारहवें गुणस्थान तक सहजानन्द का प्रकाश रहता है, बिना प्रयत्न के सहज ही शुद्ध ध्यान होता है व सहज ही आनन्द का स्वाद आता श्रेणी पथ पर चढ़ने से, विशेष करके क्षपक श्रेणी पर आरोहण करने से विशेष कर्मों का क्षय होता है । इस कर्म के क्षय में सहजानन्द का योग कारण है, इसी से चारों घातिया कर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। शुद्धात्मा का प्रत्यक्ष रूप झलक जाता है, अरिहन्त परमात्मा हो जाता है, तब अनन्त दर्शन,अनन्त ज्ञान,अनन्त सुख,अनन्त वीर्य,अनन्त चतुष्टय प्रगट हो जाते हैं। जब आत्मानन्द का स्वाद आवे तभी आत्मानुभव या आत्मध्यान या रत्नत्रय की एकता रूप मोक्षमार्ग समझना चाहिए। अतीन्द्रिय आनंद में आत्मतल्लीनता से जो
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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