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________________ ११६ ११७ गाथा-६३ श्रद्धान से कर्मासव का निरोध होता है। जो भव्य, आत्मा को अबद्ध स्पृष्ट, अनन्य,नियत, अविशेष, असंयुक्त देखता है वह सर्व जिन शासन को देखता जानता है। १७. समय ,सुद्ध,सार्थ: तीन भाव १८.समय, सार्थ, ध्रुव: तीन भाव गाथा-६३ समयं दर्सनं न्यानं, चरनं सुद्ध भावना। सार्थ सुख चिद्रूपं,तस्य समय सार्थ धुवं । अन्नपार्थ-(समयं दर्सनं न्यानं) समय जो आत्मा वह दर्शन ज्ञान (चरनं सुद्ध भावना) चारित्रमयी है, ऐसी शुद्ध भावना भाना (सार्धं सुद्ध चिद्रूपं) शुद्ध चैतन्य स्वरूप की साधना करना (तस्य समय सार्धं धुवं) उसको समय अर्थात् आत्मा का निश्चय से शाश्वत श्रद्धान श्री त्रिभंगीसार जी पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय । नौ पदार्थ- जीव, अजीव, पुण्य ,पाप ,आस्रव ,बन्ध, संवर ,निर्जरा ,मोक्ष । इन सत्ताईस तत्वों में एक जीव तत्व ही प्रमुख है जो चेतन लक्षण वाला तथा इन सत्ताईस तत्वों को जानने वाला है। शेष तत्व अजीव, पुद्गल का विस्तार है, जो जीव के विभाव रूप परिणमन का परिणाम है। शुद्ध नय से देखा जाये तो जीव ही एक चैतन्य चमत्कार मात्र प्रकाश रूप प्रगट हो रहा है । इसके अतिरिक्त भिन्न-भिन्न तत्व कुछ भी दिखाई नहीं देते । जब तक इस प्रकार जीव तत्व की जानकारी जीव को नहीं है तब तक वह व्यवहार दृष्टि है, भिन्न-भिन्न तत्वों को मानता है । जीव पुद्गल की बन्ध पर्याय रूप दृष्टि से पदार्थ भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं किन्तु जब शुद्ध नय से जीव पुद्गल का स्वरूप भिन्न-भिन्न देखा जाये कि जीव सिद्ध के समान शुद्ध परमात्म स्वरूप है और पुद्गल शुद्ध परमाणु रूप है तो फिर कुछ भी वस्तु नहीं है। वे निमित्त- नैमित्तिक भाव से हुए थे, इसलिए जब निमित्त नैमित्तिक भाव मिट गया तब जीव ,पुद्गल भिन्न-भिन्न होने से अन्य कोई वस्तु सिद्ध नहीं हो सकती । वस्तु तो द्रव्य है और द्रव्य का निज भाव, द्रव्य के साथ ही रहता है तथा निमित्त-नैमित्तिक भाव का अभाव ही होता है इसलिए शुद्धात्मा के श्रद्धान से मुक्ति की प्राप्ति होती है। जो सुबुद्धि जीव- भूत, वर्तमान,और भविष्य तीनों काल में कर्मों के बन्ध को अपने आत्मा से भिन्न करके तथा कर्मोदय के निमित्त से होने वाले अज्ञान मिथ्यात्व को अपने पुरुषार्थ से नाश करके अन्तरंग में देखता है तो यह आत्मा अपने अनुभव से ही जानने योग्य जिसकी प्रगट महिमा है, ऐसा व्यक्त, अनुभव गोचर ,निश्चल, शाश्वत,ममलस्वभावी शुद्धात्मा स्वयं देव विराजमान है ऐसा अनुभव में आता है । व्यवहार नय से जीव ,अजीव आदि सात तत्वों का श्रद्धान करना सम्यक्त्व कहलाता है क्योंकि इनके श्रद्धान से पर्यायों का ज्ञान होता है कि यह आत्मा इस तरह कर्म बन्ध कर अशुद्ध होता है तथा कर्म का क्षय करके मुक्त होता है। इसमें पुण्य-पाप, आम्रवबन्ध में गर्भित हैं। जीवादि छह द्रव्यों में काल द्रव्य को छोड़कर पाँच अस्तिकाय गर्भित हैं। इन सात तत्वों में जीव, संवर,निर्जरा,मोक्ष ग्रहण करने योग्य हैं, आसव बन्ध त्यागने योग्य हैं, अजीव ज्ञेय है। निश्चय नय से एक शुद्धात्मा ही ग्रहण करने योग्य है, जिसके विशेषार्थ- आत्मा निश्चय से समय है, अपने स्वरूप में एक भाव से परिणमन करने वाला तथा जानने वाला है। यह अपने स्वभाव में रमणशील होने से यही स्वसमय है । जब यह स्वभाव में रमता है तब इसमें शुद्ध तत्व की भावना होती है। स्वभाव में रमण रूप आत्मा का परिणमन होना ही सार्थक है क्योंकि उस समय निश्चय रत्नत्रय का लाभ है । आप ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान,चारित्र रूप हो रहा है। यही एक स्वानुभवमयी मोक्षमार्ग है, यही धर्म ध्यान और शुक्लध्यान है जो कर्मों का क्षय कारक भाव है। जब यह जीव सर्व पदार्थों के स्वभाव को प्रकाशित करने में समर्थ केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाली भेदज्ञान ज्योति का उदय होने से, सर्व पर द्रव्यों से छूटकर दर्शनज्ञान स्वभाव में नियत वृत्ति रूप आत्मतत्व के साथ एकत्व रूप में लीन होकर प्रवृत्ति करता है, तब दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित होने से अपने स्वरूप को एकत्व रूप से एक ही समय में जानता तथा परिणमता हुआ स्वसमय है। ज्ञानी के दर्शन, ज्ञान, चारित्र यह तीन भाव व्यवहार से कहे जाते हैं। निश्चय से ज्ञान भी नहीं है, दर्शन भी नहीं है, चारित्र भी नहीं है, ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है। परमाई या उत्तम पदार्थ एक आत्मा है, वह एक साथ अपने
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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