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________________ गाथा-४३ श्री त्रिभंगीसार जी परिभ्रमण होता है। घर, परिवार, समाज सम्बन्धी कर्मों से न्यारे होने पर निराकुलता होती है। पुण्य-पापादि क्रिया से न्यारे होने पर निर्भयता होती है। शुभाशुभ भावों से न्यारे होने पर निश्चिन्तता होती है। शरीरादि अशुद्ध पर्याय से न्यारे होने पर निर्विकल्पता होती है, तब ही आत्मस्वरूप की निजानंद, निईन्दता, मस्ती आती इन्द्रियों के विषयों की चाह ही संसार में भ्रमण का कारण है। इन्द्रिय भोगों से कभी किसी को तृप्ति नहीं होती। मानव जीवन आत्मकल्याण के लिये मिला है अत: इन्द्रियों का निरोध आवश्यक है । साधक को पूर्ण इन्द्रिय विजयी होना चाहिए। 34. चष्यु, स्रोत्र, उछाह:वीन भाव गाथा-४३ चव्यं अत्रितं दिस्टा, श्रुतं विकह रागयं । उच्छाह मिच्छ मयं प्रोक्तं,त्रिविधं त्रिभंगी दलं॥ अन्ववार्य-(चष्यु अनितं दिस्टा ) आँखों से जो दिखाई देता है अर्थात् पौद्गलिक जगत क्षणभंगुर, नाशवान है, इसको देखना, देखकर राग करना बन्धन है (श्रुतं विकह रागय) कानों से विकथाओं को सुनकर राग करना (उच्छाह मिच्छ मयं प्रोक्तं) मिथ्यात्व में संलग्न रहना मिथ्या उत्साह कहा गया है (त्रिविधं त्रिभंगी दलं) इस तरह तीनों प्रकार से त्रिभंगी दल में ७३ और इनमें उत्साह होना, यह सब मिथ्यात्व कहा गया है। जो जीव इनमें रत रहता है वह कर्मों का बन्ध करके संसार का पात्र बनता है । कर्तृत्व-भोक्तृत्व ही संसार है । जो जीव अपनी समझ, सामग्री, समय, सामर्थ्य, परवस्तु शरीरादि के विषय भोग में लगाता है, उसमें उत्साहित रहता है वह संसार में परिभ्रमण करता है। यदि साधक का यह दृढ निश्चय हो जाये कि मुझे एक मात्र परमात्म पद प्राप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं करना है तो वह वर्तमान में ही मुक्त हो सकता है; परन्तु यदि वस्तुओं के सुख भोग और जीने की इच्छा रहेगी तो इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकती तथा मृत्यु के भय और क्रोध से भी छुटकारा नहीं मिलेगा; अत: मुक्त होने के लिए इच्छा रहित होना आवश्यक है। जो संसार मात्र का कारण है, उस कर्म प्रकृति के द्वारा सभी क्रियायें होती हैं परंतु जब उन क्रियाओं के साथ अपना संबंध मान लेने से अपने में कर्तुत्व आ जाता है यही अज्ञान और अविवेक है । ज्ञान तब होता है जब कर्म प्रकृति के बारा होने वाली क्रियाओं के साथ अपना किंचित् मात्र भी सम्बन्ध न रखकर अपने स्वरूप में स्थित हो जायें। वे पुरुष श्रेष्ठ हैं जो परनिन्दा के समय गूंगे, पर स्त्री दर्शन के समय अन्धे और दूसरों के रहस्य की बातें सुनते समय बहरे बन जाते हैं। जो दूसरों का उपहास न उड़ाये, निन्दा न करे, नीचा न दिखाये, झूठी बातें न बोले और दूसरों पर आक्षेप न लगाए वही श्रेष्ठ, कुलीन है। संसार, शरीर, विषयादि की चाह प्राण लेती है, भयभीत रखती है, परिभ्रमण कराती है। नाम, यश, प्रभावना, प्रसिद्धि की चाह मदहोश करती है, पराधीन बनाती है। चाह यदि खत्म हो जाये तो कोई भय-चिंता, संकल्प-विकल्प, राग-द्वेष नहीं रहते। आकांक्षा का नाम वेद्य भाव है। आकांक्षा को भोगने वाला भाव वेदक भाव कहा गया है। जब वेद्य भाव होता है तब वेदक भाव की उत्पत्ति नहीं होती और जब वेदक भाव होता है तब तक वेद्य भाव समाप्त हो जाता है । संसारी जन वस्तुत: अपने में राग-द्वेष भाव ही करते हैं और वह जिन पदार्थों का अवलम्बन लेकर करते हैं उन पदार्थों का भोक्ता अपने को मानते हैं, यह सत्य नहीं है। प्रत्येक पदार्थ तो अपनी सत्ता में अपने द्रव्य-गुण-पर्याय में रहता है। फँसता है। विशेषार्य-चक्षु से अनेक प्रकार के पदार्थों को देखकर राग भाव होता है। आँखों से जो भी दिखाई देता है वह सब पौद्गलिक जगत क्षणभंगुर नाशवान है; परंतु रागी मिथ्यादृष्टि जीव सुन्दर शरीर के रूप को, आभूषणों, वस्त्रों, मकान, नगर, खेल तमाशे को देखकर राग भाव बढ़ाता है। चक्षु इन्द्रिय दूर से ही देखकर विषय का भोग करती है। कर्ण इन्द्रिय से अनेक प्रकार की विकथायें, सुरीले राग वर्द्धक गाने, हास्यपूर्ण वार्तालाप आदि को सुनकर राग करता है। मान-अपमान, अशुभ शब्द सुनकर द्वेष करता है। कर्ण इन्द्रिय भी दूर से शब्दों को सुनकर विषय भोग करती है; जबकि स्पर्शन, रसना और घ्राण इन्द्रियाँ पदार्थ से मिलने पर विषयभोग करती हैं। इन विषय भोगों की चाह लगन
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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