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________________ श्री त्रिभंगीसार जी देह, प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि इन उपाधियों में से जिस-जिस के साथ योगी की चित्त वृत्ति का संयोग होता है उसी उसी भाव की प्राप्ति होती है। जगत में अनेक कुगुरु, भक्तों के मन को प्रसन्न करने वाली कथाऐं कहकर, लोकरंजन करके उनसे धन संग्रह करते हैं और विषयादि में खर्च करते हैं। भक्तों को आत्मस्वरूप न बताकर उन्हें रागवर्द्धक, हिंसावर्द्धक क्रियाओं में लगा देते हैं । पुत्रलाभ व धनलाभ होने का लोभ देते हैं, जिससे प्राणी अधर्म को धर्म मान लेते हैं। ऐसे आलापों से स्व-पर को कुमार्ग में डालने वाले जीव नरकायु बाँधकर दुर्गति के पात्र बन जाते हैं । शोक के अनेक कारण होते हैं। जब कभी मिथ्या व मायाचार से लोगों को रंजायमान करते हुए इष्ट का लाभ नहीं होता अथवा अनिष्ट का संयोग हो जाता है, इच्छित वस्तु की चिन्ता करते हुए भी वह नहीं मिलती तब भारी शोक होता है । इष्ट वियोग में अज्ञानी को महादु:ख होता है। वह शोकार्त होकर आत्मघात कर लेता है जिससे नरक गति में जाता है । जिसे सचमुच भव-भ्रमण से छूटना हो, उसे स्व को, पर द्रव्य से भिन्न पदार्थ निश्चित करके अपने ध्रुव ज्ञायक स्वभाव की महिमा अंतरंग में अनुभव करके सम्यग्दर्शन प्रगट करने का प्रयास करना चाहिए। ३४. रसना, स्पर्सन, धान : तीन भाव गाथा-४२ रसनं स्पर्सनं भावं, घ्रानं घ्रान संजुतं । असुहं कर्म संप्रोक्तं, त्रिभंगी दल पस्यते ॥ अन्वयार्थ-(रसनं स्पर्सनं भावं ) रसना इन्द्रिय व स्पर्शन इन्द्रिय का भाव ( घ्रानं घ्रान संजुतं ) नासिका इन्द्रिय से सूँघने के भाव में जुड़ना (असुहं कर्म संप्रोक्तं ) अशुभ कर्म कहा गया है (त्रिभंगी दल पस्यते ) यह तीन भाव आसव के कारण जानना चाहिए। विशेषार्थ - बुद्धिमान मनुष्यों को यह स्मरण रखना चाहिए कि आत्मा को इस विशिष्ट मानव योनि की प्राप्ति करोड़ों वर्षों तक देहान्तर करने के बाद हुई है। यह प्राकृत जगत जैसे कि एक बड़ा समुद्र है और भवसागर में मानव योनि एक नौका के समान है। जिसकी रचना इस सागर को पार करने के लिए हुई है । धर्मशास्त्र और सद्गुरू कुशल नाविक हैं और मानव देह तथा प्राप्त सुविधायें अनुकूल वायु है जो सही दिशा में ले जा सकती है। यदि इन सुविधाओं के रहते भी कोई ७० ७१ गाथा- ४२ मनुष्य अपनी मानव योनि का सदुपयोग-स्वरूप साक्षात्कार, आत्मदर्शन के लिये नहीं करता तो उसे आत्महन्ता समझना चाहिए। इस मानव शरीर की विशेषता उसकी पाँच इन्द्रियाँ और मन है । प्रत्येक मनुष्य में एक तो इन्द्रियों का ज्ञान होता है और एक बुद्धि का ज्ञान । इन्द्रियाँ और बुद्धि दोनों के बीच मन का निवास है । इन्द्रियों के ज्ञान में संयोग का प्रभाव पड़ता है और बुद्धि के ज्ञान में परिणाम का। जिनके मन पर इन्द्रिय ज्ञान का प्रभाव है वह सुख भोग में लगे रहते हैं। जिनके मन पर बुद्धि ज्ञान का प्रभाव है वे परिणाम की ओर दृष्टि रहने से सुख भोग का त्याग करने में समर्थ हो जाते हैं। एक-एक इन्द्रिय की विषय वासना से जीव को अपने प्राण गँवाना पड़ते हैं । स्पर्शन इन्द्रिय के वशीभूत हाथी, रसना इन्द्रिय के वशीभूत मछली, घ्राण इन्द्रिय के वशीभूत भौंरा, चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत पतंगा, कर्ण इन्द्रिय के वशीभूत हिरण अपने प्राण गंवाता है फिर जो जीव पाँचों इन्द्रियों के विषय भोग में लगा हो उसकी क्या दुर्दशा होगी ? मनुष्य को रसना इन्द्रिय की विशेषता प्राप्त है, इसके दो कार्य हैं - खाना और बोलना । रसना इन्द्रिय ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों रूप काम करती है। खाने से शेष इन्द्रियाँ सक्रिय होती हैं। खाने के लिए पाप - परिग्रह, क्रिया-कर्म करना पड़ते हैं। बोलने से संसार एवं पर जीवों से सम्बंध जुड़ता है जिससे राग-द्वेष रूप कर्मबन्ध होता है। स्पर्शन इन्द्रिय की वासना संसार का मूल है। काम भाव से स्त्री-पुरुष, परिवार का सम्बन्ध होता है । स्पर्शन इन्द्रिय की विषय पूर्ति पराधीन बनाती है । इसके पीछे हिंसादि पाप होते हैं जो संसार परिभ्रमण का कारण है । प्राण इन्द्रिय विषयाधीन हित-अहित, हेय उपादेय का विवेक नहीं रहता । इन तीनों इन्द्रियों के भाव से निरन्तर कर्मास्रव अशुभ कर्म का बन्ध होता है । वास्तव में प्रत्येक प्राणी, स्वरूप से इन्द्रियातीत असंग ही है | शरीरादि पर वस्तु में अपनत्व मानकर सुख की इच्छा से उनमें आबद्ध हो जाता है। मन में चाह पैदा होने लगती है, यह होना, वह नहीं होना, इससे राग-द्वेष पैदा होने लगते हैं। इन भावों के होने से संसार राग बढ़ता है। कामनाओं की उत्पत्ति संकल्प से होती है । उत्पत्ति-विनाश वस्तुओं की स्मृति, स्फुरणा कहलाती है। जिसकी स्मृति आई, उस वस्तु में सत्ता और प्रियता होना संकल्प है। ऐसा होना चाहिए ऐसा नहीं होना चाहिए, यह कामना है इससे कर्म बन्ध रूप संसार
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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