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________________ श्री त्रिभंगीसार जी उसका एक देशांश या गुणांश भी जीव अपनी सत्ता में मिला नहीं सकता अत: उन्हें भोगता नहीं है । वह तो अपने रागभाव को ही भोगता है । वह पदार्थ का ज्ञाता हो सकता है किन्तु ज्ञाता होने पर और उनके प्रति रागी होने पर भी वह उन पदार्थों से त्रिकाल भिन्न है; फिर वह उनका भोक्ता कैसे हो सकता है ? यह मिथ्या कल्पना ही अज्ञानी को संसार में भटकाती है, इसी कारण वह शरीरादि इन्द्रिय विषयों के लिये दौड़ा-दौड़ा फिरता है । सम्यक्दृष्टि ज्ञानी वस्तु स्वभाव को जानता है अत: वह भटकता नहीं है, समता, शांति, नि: कांक्षित भाव रखता है; इसलिये राग-द्वेष-मोह के अभाव में उसे कर्मबन्ध नहीं होता । प्रश्न- जो साधक पाँचों इन्द्रियों का संयमी है उसको इन भावों से क्या प्रयोजन है ? समाधान- जो साधक बाह्य में पाँचों इन्द्रियों का संयमी है परंतु उसकी रसबुद्धि नहीं छूटी है, लगाव बना हुआ है तो ऊपर से त्याग होने पर भी इन भावों में बहता रहता है, जिससे कर्मास्रव बन्ध होता है । जब तक शरीर का ममत्व राग नहीं छूटता तब तक यह सारे भाव रहते हैं । प्रश्न- किस-किस भाव से कौन-कौन से कर्मों का आसव बंध होता है ? समाधान- द्रव्य कर्म के आठ भेद हैं- १. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अन्तराय । जीव के किस भाव से कौन सा कर्मास्रव होता है यह संक्षेप में निम्न प्रकार से है: ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय कर्म के आसव भाव - १. प्रदोष - प्रशंसा योग्य कथनी-करनी सुनकर दूषित वृत्ति व ईर्ष्या भाव से मौन रहना, प्रशंसा न करना । २. निन्हव-वस्तु स्वरूप को जानते हुए भी ज्ञान को छिपाना, ऐसा कहना कि मैं नहीं जानता । ३. मात्सर्य-वस्तु स्वरूप को जानते हुए भी यह विचार कर किसी को न पढ़ाना, न बताना कि यदि मैं इसे कहूँगा तो यह पंडित हो जायेगा । ४. अन्तराय - यथार्थ दर्शन - ज्ञान की प्राप्ति में विघ्न बाधा डालना । ५. आसादन- ज्ञान, दर्शन के कार्य, प्रकाश होने में रोक लगाना । ६. उपघात यथार्थ दर्शन- ज्ञान में दोष लगाकर घात करना । ७४ ७५ वेदनीय कर्म आसव के कारण - वेदनीय कर्म- इसके दो भेद हैं- साता, असाता । सातावेदनीय आसव के कारणभूत परिणाम - १. भूतानुकम्पा - समस्त जीवों में दया भाव - अनुकम्पा । २. व्रती अनुकम्पा - व्रती संयमी जीवों के प्रति विशेष दयाभाव । ३. दान - चार प्रकार का पात्र दान देना और हमेशा देने के भाव होना । ४. सराग संयम-मुनि धर्म, साधु पद होने के भाव रहना । ५. संयमासंयम - श्रावक धर्म, प्रतिमाधारी व्रती होने के भाव रहना । गाथा- ४३ ६. अकाम निर्जरा-समता, शांति से कर्मोदय को सहना, तप- व्रतादि पालन करना । ७. बाल तप-अज्ञानता पूर्वक संयम - तप के पालन में दृढ़ रहना । ८. क्षान्ति क्षमा, शांति रूप परिणाम । ९. शौच - कषायों की मंदता होना, सरल, सहज परिणाम रखना । असातावेदनीय आसव के कारणभूत परिणाम - १. दु:ख-पीड़ा रूप परिणाम, निरंतर दुःखी रहना या किसी को दुःखी करना । २. शोक-इष्ट वियोग में खेद, खिन्नता, विकलता, शोकमय रहना (स्व-पर में) ३. ताप - पर के द्वारा अपनी निन्दा होने पर संताप रूप भाव तथा पर की निन्दा करना । ४. आक्रन्दन-पश्चात्ताप से अश्रुपात करके रोना, विलाप करना । ५. वध - हाथ पैर पटकना, प्राणों का वियोग करना । ६. परिदेवन - संक्लेश परिणामों से करुणा जनक विलाप करना । स्वयं को तथा पर को या एक साथ दोनों को दुःख शोकादि उत्पन्न करना सो असातावेदनीय कर्म के आसव का कारण होता है । मोहनीय कर्म (दो भेद - दर्शन मोहनीय, चारित्र मोहनीय ) के आसव भाव - १. दर्शन मोहनीय- केवली का अवर्णवाद, श्रुत का अवर्णवाद, संघ का अवर्णवाद, धर्म का अवर्णवाद और देव का अवर्णवाद करना अर्थात् जिसमें जो दोष न हों उसमें उस दोष का आरोपण करना, मिथ्या दोष लगाना, मिथ्या अभिप्राय, द्वेष बुद्धि रखना । इससे दर्शन मोहनीय, मिथ्यात्व कर्म का आसव बन्ध होता है।
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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