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________________ ૬૮ ६९ श्री त्रिभंगीसार जी संसार का परिणमन काल के अनुसार है। कार्य का होना तत्समय की योग्यतानुसार है। जीवों का परिणमन अपनी-अपनी पात्रतानुसार; इसलिए जो होना होता है वह होता ही है, जो नहीं होना होता वह नहीं ही होता है उस कार्य (क्रिया ) सम्बंधी भाव-पर्याय चलने पर उसमें अपनत्व और लगाव होना ही अपने लिये विकल्प और विवाद का कारण है। पर्चा करना राग-देष का कारण है। क्रिया होना कर्मबन्ध दुःख और दुर्गति का कारण है। प्रश्न-जब साधक धर्म साधना में रत है तो उसको यह कर्मासव क्यों होता है ? समाधान-जब तक विपरीत अभिप्राय रहित होकर सत्-असत् का भेदज्ञान नहीं है, तब तक जीव सम्यक्दृष्टि नहीं हो सकता। बाहर से शुभाचरण करना मात्र ही धर्म नहीं है। सत् का अभिप्राय-"मैं जीव तत्व त्रिकाल शुद्ध चैतन्य स्वरूप हूँ।" असत् का अभिप्राय-"पर्याय में होने वाले विकार और पर पदार्थ सभी पर हैं। पर पदार्थ और आत्मा भिन्न होने से कोई पर का कुछ नहीं कर सकता। आत्मा की अपेक्षा से पर पदार्थ असत् हैं-नास्ति रूप हैं।" जब ऐसा यथार्थ स्वरूप समझते हैं तभी जीव को सत्-असत् के विशेष का यथार्थ ज्ञान होता है। जीव को जब तक ऐसा ज्ञान नहीं होता तब तक आस्रव दूर नहीं होते; और जब तक जीव अपना और आसव का भेद नहीं जानता तब तक उसके विकार दूर नहीं होते। जगत के जीव आस्रव तत्व की अज्ञानता के कारण ऐसा मानते हैं कि "पुण्य से धर्म होता है।" कितने ही लोग शुभ योग को संवर मानते हैं तथा ऐसा मानते हैं कि अणुव्रत, महाव्रत मैत्री इत्यादि भावना और करुणा बुद्धि से धर्म होता है किन्तु यह मान्यता अज्ञानता पूर्ण है। सम्यक्दृष्टि जीव के होने वाले व्रत, दया, दान, करुणा, मैत्री इत्यादि भावना भी शुभ आस्रव हैं इसलिए वे बन्ध के ही कारण हैं; तो फिर मिथ्यादृष्टि जीव के शुभभाव संवर, निर्जरा और धर्म के कारण कैसे हो सकते हैं ? अज्ञानी के शुभ भाव को परंपरा अनर्थका कारण कहा है। अज्ञानी तो शुभ भाव को धर्म या धर्म का कारण मानता है और उसे वह भला जानता है ऐसा करके वह स्वयं अशुभ रूप परिणमता है। इस तरह अज्ञानी का शुभ भाव तो परम्परा पाप का कारण कहा है। ज्ञानी शुभ भाव को धर्म या धर्म का कारण नहीं मानते बल्कि उसे आसव जानकर दूर करना चाहते हैं क्योंकि शुद्ध भाव ही मुक्ति का कारण है। यह भूमिका गाथा-४१ लक्ष्य में रखकर इस अध्याय के सूत्रों में आये हुए भाव समझने से वस्तु स्वरूप संबंधी भूल दूर हो जाती है। 33. आलाप, लोकरंजन, सोक : तीन भाव गाथा-४१ आलापं असुहं वाक्यं,मिथ्या मय लोक रंजनं । सोकं अत्रितं दिस्टा, त्रिभंगी नरवं पतं ॥ अन्वयार्थ-(आलापं असुहं वाक्यं) अशुभ वचनों को कहना आलाप है (मिथ्या मय लोक रंजन) मिथ्या व मायाचार सहित कथन करके लोगों को प्रसन्न करना लोकरंजन है (सोकं अनितं दिस्टा) अहितकारी घटना, परिस्थिति को देखकर शोक होता है (त्रिभंगी नरयं पतं) यह तीन भाव नरक के पात्र बनाते हैं। विशेषार्थ-व्यर्थ बोलना, अशुभ वचन बोलना, निष्प्रयोजन बोलना आलाप है। मिथ्या मायाचारी करना, विकथा आदि से लोगों को रंजायमान करना लोक रंजन है। पर की तरफ दृष्टि, नाशवान वस्तुओं को देखना, अहितकारी मानना, इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग आदि से शोक होता है। यह तीनों भाव नरक आयु के बन्ध के कारण हैं। श्रेष्ठजनों के द्वारा कर्तव्य की उपेक्षा, अपना दायित्व निभाने में प्रमाद तथा चारित्र स्खलन की छोटी सी भूल लोक समुदाय के पतन और विनाश के कारण बन जाते हैं। केवल अपने सुखोपभोग के लिये जीने वाला व्यक्ति पाप की जिन्दगी जीता है तथा निन्दनीय होता है। काम, क्रोध, लोभ यह तीनों नरक के द्वार हैं। काम, क्रोध और मोह के आधीन होकर ही मनुष्य पापकर्म करके दुःख पाता है एवं संसार बन्धन में फँसता है। चारित्र और नैतिक मूल्यों की उपेक्षा, वाणी, बाहु और उदर को संयत न रखने के कारण होती है। हिंसा, चोरी, कुशील यह तीन काया के निच कर्म । परनिंदा, कठोर, मर्मस्पर्शी वचन, झूठ और कलह मूलक भाषण, यह चार बचन निच कर्म हैं। पर का बुरा विचारना, दूसरों का धनादि हरण करने की इच्छा और विपरीत मान्यता यह तीन मानसिक निच करें। जिनसे जीव नरक का पात्र बनता है। क्रोध से प्रीति नष्ट होती है, अभिमान से विनयशीलता जाती रहती है। माया में पड़ा तो मित्रता नष्ट हुई और लोम सब कुछ नष्ट कर देता है।
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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