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________________ श्री त्रिभंगीसार जी कर्म करने व न करने से अतीत है । मोक्षमार्ग स्वानुभव रूप है जहाँ मन, वचन, काय तीनों का कार्य बन्द है, शरीर स्थिर है, वाणी का प्रचार नहीं होता है, मन के विचारों का प्रवाह भी बंद है, जब आत्मा,आत्मा से ही आत्मा में स्थिर होता है, वह समाधिभाव है, इसे स्वानुभव कहते हैं । यहाँ रत्नत्रय की एकता है, अपने शुद्धात्म स्वभाव का श्रद्धान भी है, ज्ञान भी है तथा स्वरूप में स्थिरता रूप चारित्र भी है। इसी स्वानुभव से नवीन कर्मों का संवर होता है और पुरातन कर्म विशेष झड़ते हैं। २५. हास्य, रति, आर्त : तीन भाव गाथा - ३३ हास्य राग व्रिधंते, रति मिथ्यात भावना । आर्त रौद्र संजुत्तं, त्रिभंगी दल पस्यते ॥ अन्वयार्थ (हास्य राग ब्रिधंते) हास्य- हँसी मजाक या किसी विशेष परिस्थिति, कार्य-कारण से हँसना, इस हास्य भाव से राग बढ़ता है ( रति मिथ्यात भावना) रति-प्रीतिभाव, विषयासक्ति, इसमें मिथ्यात्व भावना रहती है (आर्त रौद्र संजुत्तं) आर्त-रौद्रभाव में लीन रहना (त्रिभंगी दल पस्यते) इस तरह के यह तीन भाव देखे जाते हैंजो आस्रव के कारण हैं। विशेषार्थ - हास्य से राग बढ़ता है, रति से मिथ्याभाव होते हैं, आर्तभाव से रौद्र भाव में लीनता होती है । यह तीनों भाव कर्मास्रव, संसार के कारण हैं । हास्य, रति, अरति, नो कषाय के भेद हैं । हास्यभाव किसी परिस्थिति, घटना, व्यक्ति और कार्य केनिमित्त से होता है । जब किसी तरह का स्वार्थ सधता है तो खुशी होती है। किसी व्यक्ति को किसी कार्य में असमर्थ देखने से हँसी आती है, पर की निन्दा व अपनी प्रशंसा होने से राग भाव बढ़ता है, मन में बड़ी संतुष्टि होती है; यह सब हास्य भाव है। व्यर्थ चर्चा करके मन को रंजायमान करना हास्य भाव है जिससे राग बढ़ता है और कर्मबंध होता है । इन्द्रियों के विषयों में उत्सुकता को रति भाव कहते हैं। इससे स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब, धन, धान्य,वस्त्रालंकार,मकानादि, भोजन, गाना बजाना, सुगन्धादि पाँचों इन्द्रियों के विषयों ५४ ५५ गाथा-३३ की अनुकूलता में विशेष अनुराग होता है, स्वरूप की विस्मृति पूर्वक शरीर के राग में रत रहना मिथ्यात्व भाव है जो संसार का कारण है। इष्ट पदार्थों के वियोग में दु:खी होना आर्तभाव है। इसमें जीव अनिष्ट संयोग से पीड़ित होता है, रोगादि होने पर संक्लेश परिणामी होता है, आगामी संयोग के लिए आतुर होकर घबराता है । स्वार्थ साधन के लिए बाधक कारणों को हटाने के लिए हिंसादि रौद्र परिणाम करता है। मिथ्यादृष्टि को कभी सुख, कभी दु:ख, कभी हास्यभाव रहता ही है । वह निरन्तर हास्य-रति-आर्तभाव में उलझा रहता है। इस तरह राग-द्वेष-मोह में फँसा हुआ अज्ञानी संसार में भ्रमण कराने वाले कर्म बाँध लेता है। नरक, तिर्यंच आयु का बन्ध इन तीनों भाव से होता है । ज्ञानी हमेशा यह विचार करता है कि जीव को सुख और दुःख पूर्व में किये हुए शुभाशुभ कर्मों से होता है इसलिए मैं सुख होने पर राग और दुःख होने पर दे भाव क्यों करूँ ? इस तरह स्वरूप का विचार कर जो समभाव रखता है वह बुद्धिमान, पूर्व कर्मों की निर्जरा करता है तथा नवीन कर्मों का बन्ध भी नहीं करता । वास्तव में कर्मासव बन्ध का स्वरूप यही है कि रागी जीव कर्मों को बाँधता है और राग रहित जीव कर्मों से छूट जाता है। साधना के प्रारम्भ में साधक के अन्त:करण में द्वन्द रहता है। सत्संग, स्वाध्याय, विचार आदि करने से वह परमात्म प्राप्ति को अपना ध्येय तो मान लेता है पर उसके अपने कहलाने वाले मन और इन्द्रियों आदि की रुचि स्वाभाविक ही भोग भोगने और संग्रह करने में रत रहती है । इसलिए साधक कभी परमात्म तत्व को प्राप्त करना चाहता है और कभी भोग एवं संग्रह को । उसे जैसा संग मिलता है वैसे उसके भावों में परिवर्तन होता रहता है । इस तरह साधक के अन्त:करण में द्वन्द - "भोग भोगूँ या साधना करूं ?" चलता रहता है । इस दन्द पर ही अहं भाव टिका हुआ है, इसी से राग-द्वेष होता है। हमें सांसारिक भोग और संग्रह में लगना ही नहीं है! है प्रत्युत एक मात्र परमात्म तत्व को ही प्राप्त करना है - ऐसा दृढ निश्चय होने पर द्वन्द नहीं रहता ।
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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