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________________ ५२ श्री त्रिभंगीसार जी इस प्रकार दर्शन मोह से अन्ध होकर जीव भव-भव में जन्म-मरण के दुःख सहते हैं। ज्ञानी को यथार्थ द्रव्य दृष्टि होती है, वह द्रव्य के स्वभाव आलम्बन द्वारा अंतर स्वरूप स्थिरता में वृद्धि करता जाता है; परंतु जब तक अपूर्ण दशा है, पुरुषार्थ मंद है, पूर्ण रूप से शुद्ध स्वरूप में स्थिर नहीं हो सकता तब तक वह शुभ परिणाम में संयुक्त होता है परन्तु वह उन्हें आदरणीय नहीं मानता है। २४.कर्मादि, असमाधि, अस्थिति: तीन भाव गाथा-३२ कर्मादि कर्म करतानि,असमाधि मिथ्या मयं जुतं । अस्थिति असुद्ध परिनामं, त्रिभंगी संसार कारनं ॥ अन्वपार्व-(कर्मादि कर्म करतानि) कर्मादि कर्म का मैं कर्ता हूँ (असमाधि मिथ्या मयं जुतं) मिथ्यात्व में लीन रहना असमाधि है (अस्थिति असुद्ध परिनाम) अशुद्ध भाव अर्थात् शुभ-अशुभ परिणामों में लगे रहना अस्थिति है (त्रिभंगी संसार कारनं) यह तीनों ही भाव संसार भ्रमण के कारण हैं। विशेषार्थ- जहाँ तक मन-वचन-काय की बुद्धि पूर्वक शुभ या अशुभ क्रिया होती रहती है व उस क्रिया पर आसक्त भाव है, रुचिपूर्वक क्रिया का कर्तापना है, वहाँ तक संसार का प्रवाह चलता ही रहता है। कर्मादि-ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, मोह राग द्वेषादि भाव कर्म,शरीरादि नो कर्म, यह मेरे हैं, मैं इनका कर्ता हूँ। यह अज्ञान भाव ही संसार कर्मबन्ध का कारण है। कर्म की उत्पत्ति और कर्म के क्षय में अपनी दृष्टि ही मुख्य कारण है । जीव और पुद्गल के संयोग से कर्म पैदा होते हैं। कर्म पुद्गल जड़ हैं, जिनका स्वभाव क्षय होने का है। यह तीनों ही कर्म उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं। कर्म प्रकृति के साथ जीव का एक क्षेत्रावगाह निमित्त-नैमित्तिक संबंध होने के कारण मनुष्य मात्र में कर्म करने का वेग रहता है, वह क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता । संसार में वह देखता है कि कर्म करने से ही वस्तु की प्राप्ति होती है परन्तु यह उसकी भूल है क्योंकि नाशवान कर्मों के द्वारा नाशवान वस्तुओं की ही प्राप्ति होती है, अविनाशी वस्तु की प्राप्ति नहीं होती। अपने अविनाशी स्वरूप की प्राप्ति तो कर्मों के संबंध विच्छेद होने पर ही होती है। गाथा-३२ वास्तव में कर्म बन्धन कारक नहीं होते, मनुष्य की कामना से बंधन होता है। कामना की पूर्ति के लिए रागपूर्वक अपने लिए कर्म करने से ही मनुष्य कर्मों से बँध जाता है। जैसे-जैसे कामना बढ़ती है वैसे-वैसे वह पापों में प्रवृत्त होता जाता है। स्वयं का बोध रहते हुए, सम्पूर्ण कर्मों के करते हुए भी उनके साथ अपना संबंध है ही नहीं-ऐसा अनुभव करे तो उसके कर्मक्षय हो जाते हैं। __साधक को भाव, क्रिया ,पर्याय रूप तीनों से ही सम्बन्ध विच्छेद करना होता है। इनसे सम्बन्ध विच्छेद तब ही होगा जब साधक अपने लिये कुछ नहीं करेगा, कुछ नहीं चाहेगा और अपना कुछ नहीं है ऐसा मानेगा। असमाधि-शरीरादि वस्तुएँ जन्म से पहले भी हमारे साथ नहीं थीं और मरने के बाद भी नहीं रहेंगी तथा इस समय भी प्रतिक्षण हमसे संबंध विच्छेद हो रहा है। इन प्राप्त वस्तुओं का सदुपयोग करने का हमें अधिकार मात्र है, इन्हें हम अपना नहीं मान सकते । इन्हें अपना मानना ही वास्तव में बन्धन या असमाधि है। अस्थिति-कर्म करने के लिए पर पदार्थ यथा-शरीर,इन्द्रियाँ, मन,बुद्धि, पदार्थ,व्यक्ति, देश-काल आदि परिवर्तनशील वस्तुओं की सहायता लेना पड़ती है। पर की सहायता लेना परतन्मयता है,यही अस्थिति है जो शुभाशुभ भावों में उलझाती है। स्वरूप ज्यों का त्यों है, उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, इसलिए उसकी अनुभूति में पर कहे जाने वाले शरीरादि पदार्थों के सहयोग की लेशमात्र भी अपेक्षा आवश्यकता नहीं है। पर से माने हुए संबंध का त्याग होने से स्वरूप में स्वत: सिद्ध स्थिति का अनुभव हो जाता कर्म करने से संसार में और कर्म न करने से आत्मस्वरूप में प्रवृत्ति नहीं होती है। ऐसा मानते हुए संसार से निवृत्त होकर एकान्त में ध्यान और समाधि लगाना भी कर्म करना ही है । एकान्त में ध्यान और समाधि लगाने से तत्व साक्षात्कार होगा इस प्रकार भविष्य में परमात्म तत्व की प्राप्ति करने का भाव भी कर्म का सूक्ष्म रूप है; कारण कि करने के आधार पर ही भविष्य में तत्व प्राप्ति की आशा होती है; किन्तु परमात्म तत्व
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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