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________________ ५७ श्री त्रिभंगीसार जी राग-द्वेष को मिटाने के लिए यह विचार करना चाहिए कि अपने न चाहने पर भी अनुकूलता और प्रतिकूलता आती ही है। ___ अनुकूलता-प्रतिकूलता तो प्रारब्ध के फलस्वरूप आती जाती रहती है फिर इसके आने अथवा जाने की चाहना ही क्यों करें ? और इसे अच्छा-बुरा भी क्यों मानें? यह निर्णय करना ही राग-द्वेष को मिटाना है, यही साधक का प्रमुख कर्तव्य है। आत्मसत्ता स्वतंत्र है, अपने में पर का कर्तृत्व-भोक्तृत्व है ही नहीं, इस विचार से भी राग-द्वेष मिट जाते हैं। २६. स्त्री, पुरुष, नपुंसक : तीन भाव गाथा-३४ स्त्रियं काम विधते, पुंसं मिथ्यात संजुतं । नपुंसक व्रत पंडस्य, त्रिभंगी दल तिस्टते॥ अन्वयार्थ-(स्त्रियं काम विधंते ) स्त्री संबंधी भावों के होने पर कामभाव की वृद्धि होती है (पुंसं मिथ्यात संजुतं ) पुरुष वेद से मिथ्यात्व में लीनता होती है (नपुंसक व्रत षंडस्य) नपुंसक वेद के भाव में सभी व्रत संयम खण्डित हो जाता है (त्रिभंगी दल तिस्टते ) यह तीनों काम भाव विशेष कर्मासव और संसार बंधन के कारण हैं। विशेषार्थ-जो जीव कामभाव में रत रहता है वह कभी स्त्री संबंधी भाव करके पुरुष से भोग की चाह करता है, कभी पुरुष संबंधी भाव करके स्त्री के साथ भोग करना चाहता है। यह कामभाव महान अनर्थकारी है । काम के वश होकर मिथ्यात्व का सेवन करना पड़ता है। नपुंसक वेद के भाव से सभी व्रत-संयम खण्डित हो जाते हैं। कामभाव एक बड़ा रोग है, इससे संसार की वृद्धि होती है, सदा ही दु:ख मिलता है। जब तक जीव के मन में काम की आग जलती रहती है तब तक निरन्तर कर्मों का आसव हुआ करता है। कामभाव से बुद्धि भ्रष्ट होती है, आत्मा का पतन होता है। कामभाव में रत जीव, वेश्यागमन करते हैं, परस्त्री सेवन करते हैं, कामकथा करते हैं, कामभाव बढ़ाने वाले नाटक देखते हैं; श्रृंगार रस के शास्त्र पढ़ते हैं। कामी जीव इन पाँच खोटी भावनाओं में वर्तते हैं१. काम से राग बढ़ाने वाली कथाऐं पढ़ना व सुनना २. काम के वश होकर मनोहर रूपों को देखने के लिए आतुर रहना व देखते फिरना ३. काम भोगों की चर्चा करना ४. पौष्टिक गाथा-३४ कामोद्दीपक रसों को खाना ५ . शरीरादि को श्रृंगार से सजाकर मनोहर रखना। कामविकार से पीड़ित प्राणी पागल हो जाता है, तीव्र राग-द्वेष में फँस जाता है। मनोज्ञ स्त्री-पुरुष से मिलने को लालायित रहता है । नाना तरह के मायाजाल रचता है, मिथ्यात्व का सेवन करता है। लिये हुए व्रत, नियम, संयम भी खण्डित कर देता है, हितअहित का उसे कोई विवेक नहीं रहता । कामभाव के कारण रावण राज्यभ्रष्ट होकर नरक गया। कामभाव से बचने के लिए वृद्ध व साधु सेवा, समय का सदुपयोग, सत्संग, शास्त्रस्वाध्याय, सामायिक, आत्मचिंतन, एकांत सेवन करना चाहिए। कामभाव उद्दीपक निमित्तों से बचना चाहिए। जैसे-धी आग का निमित्त पाकर पिघल जाता है वैसे कामी का मन कामवर्द्धक स्त्री पुरुष के निमित्त से कामी हो जाता है। दुश्चरित्र मनुष्य की दुर्गति अवश्य होती है, चाहे वह कितना ही बड़ा आदमी या साधु महात्मा क्यों न हो। दुराचारी के साथ रहने की अपेक्षा नरक में रहना अच्छा है। बुढ़ापा रूप का दुश्मन है। उत्कट आशा से धैर्य नष्ट होता है । मृत्यु प्राणों की ग्राहक है। निर्लज्ज को धर्म की चिन्ता नहीं रहती, क्रोध श्रीहीन कर देता है। नीच की सेवा से शील नष्ट होता है, कामुकता लज्जा की दुश्मन है और अकेला अभिमान इन सभी गुणों को नष्ट कर देता है। द्रव्यलिंगी विषय सेवन छोड़कर, तपश्चरण करे तो भी वह असंयमी है। द्रव्यलिंगी को वैराग्य भी होता है परंतु अभ्यंतर दृष्टि राग, कषाय भाव में ही होती है। राग के तेरह भेद होते हैं-अनन्तानुबंधी आदि चार माया, अनन्तानुबंधी आदि चार लोभ, हास्य, रति, स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद । जब तक राग का सद्भाव है तब तक यह भाव होते हैं। चारित्र साधना में काम और क्रोष दुर्गुण घोर बाधक हैं। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि, काम के आधार हैं; अत: इनका नियमन भी चारित्र की सम्पन्नता के लिए परमावश्यक है; अन्यथा ज्ञान और विज्ञान दोनों नष्ट हो जायेंगे। जिसका मन किसी स्त्री पुरुष ने हर लिया हो, उसकी विद्या व्यर्थ है। उसे तपस्या, त्याग और शास्त्राभ्यास से भी कोई लाभ नहीं है तथा उसका एकांत सेवन और मौन भी निष्फल है।
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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