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________________ ५० श्री त्रिभंगीसार जी में भी अपयश होता है और दुर्गति भी मिलती है। जब तक काम की आग मन में जलती रहती है तब तक इस जीव को निरन्तर कर्मों का आस्रव होता है। स्पर्शन इन्द्रिय में चार कर्मेन्द्रिय (हाथ, पांव, गुदा, लिंग) और एक ज्ञानेन्द्रिय (रसना) है। जब तक चारों कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय पर विजय नहीं होती तब तक सही ब्रह्मचर्य नहीं होता। जो यह जानता है कि मेरा स्वरूप ज्ञान मात्र है, राग मेरा स्वरूप नहीं है, उनका धनादि पर पदार्थों के प्रति ममत्व सहज ही घट जाता है, और धर्म प्रभावना आदि का भाव उल्लसित होता है। वे यह भी जानते हैं कि यह राग है, धर्म नहीं है। अन्तर शुद्ध चिदानन्द स्वरूप को जानकर उसे प्रगट किये बिना जन्म -मरण टलने वाला नहीं है। २७. अन्यान, रति, मिस्र: तीन भाव गाथा-३१ अन्यानी मिथ्या भावस्य, रति मूह मयं सदा । मिस्रस्य दिस्टि मोहंधं, त्रिभंगी दुर्गति कारनम्॥ अन्वयार्थ-(अन्यानी मिथ्या भावस्य) मिथ्या भाव का करने वाला अज्ञानी है, (रति मूढ मयं सदा ) वह सदा मूढ मति में रति करता है (मिस्रस्य दिस्टि मोहंध) मिश्र की दृष्टि मोह में अन्धी होती है (त्रिभंगी दुर्गति कारनम् ) यह तीनों भाव दुर्गति के कारण हैं। विशेषार्थ- अज्ञान व अविद्या संसार का मूल है। आत्मा और अनात्मा का भेदज्ञान न होना ही अज्ञान है । अज्ञानी मिथ्याभाव का कर्ता है। अज्ञान के कारण जीव मृग-मरीचिका में फँस जाता है और चमकती हुई बालू को पानी समझता है, इसी अज्ञान के कारण जीव अंधकार में रस्सी को सर्प मान लेता है और भयभीत होता है। इसी तरह अज्ञानवश रात-दिन आत्मा को राग-द्वेष मयी मानकर अज्ञानी जीव नाना प्रकार के विकल्प करते हैं। जिस तरह समुद्र पवन के योग से क्षोभित होता है उसी प्रकार अज्ञानी जीव आकुलित होते हैं। जिसका मन मिथ्याभाव से मलिन होकर विषय-कषायों के आधीन है वह सदा मूढमति में रति करता है। प्रत्येक मनुष्य में एक तो इन्द्रियों का ज्ञान होता है और एक बुद्धि का ज्ञान । इन दोनों के बीच मन की चंचलता है। इंद्रियों के ज्ञान में “संयोग" का प्रभाव पड़ता है और बुद्धि के ज्ञान में “परिणाम" का बोध होता है। जिनके मन में इन्द्रिय ज्ञान का प्रभाव है वह गाथा-३१ विषय सुख भोग में लगे रहते हैं। जिनके मन पर बुद्धिज्ञान का प्रभाव होता है वह परिणाम की ओर दृष्टि रहने से विषय सुख भोग का त्याग करने में समर्थ हो जाते हैं। स्वरूप का ज्ञान स्वयं के द्वारा स्वयं को ही होता है, इसमें ज्ञाता-ज्ञेय का भाव नहीं रहता। जिस महापुरुष को ऐसे कारण निरपेक्ष ज्ञान का अनुभव हो गया है ,उसे कभी विकल्प, संदेह, विपरीत भावना, असंभावना आदि होती ही नहीं है, उसे स्थिर बुद्धि वाला कहा गया है। ____ अपने को कर्मों का कर्ता मान लेना तथा कर्म फल में हेतु बनकर सुखीदु:खी होना ही अज्ञान से मोहित होना है। पुण्य-पाप हमें करना पड़ते हैं, इनसे हम कैसे छुटकारा पा सकते हैं ? सुखी-दु:खी होना हमारे कर्मों का फल है इनसे हम कैसे छूट सकते हैं ? इस प्रकार की धारणा बना लेना ही अज्ञान से मोहित होना है। जीव स्वरूप से अकर्ता तथा सुख-दु:ख से रहित है। वह मात्र अपनी मूढता से कर्ता बन जाता है और कर्म फल के साथ सम्बन्ध जोड़कर सुखी दु:खी होता है। अपनी सत्ता और शरीरादि को अलग-अलग मानना ज्ञान है और इन्हें एक मानना अज्ञान है। कामना से विवेक टैंक जाता है। स्वार्थबुद्धि, भोगबुद्धि, संग्रहबुद्धि रखने से मनुष्य अपने कर्तव्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाता । वह वर्तमान परिस्थिति को बदलने का उद्योग ही करता है; परंतु परिस्थिति को बदलना अपने वश की बात नहीं है। बाह्य परिस्थिति कर्मों के अनुसार बनती हैं अर्थात् वह कर्मों का ही फल है। धनवत्ता-निर्धनता, निन्दा-स्तुति, आदर-निरादर, यश-अपयश, हानि-लाभ, जन्म-मरण,स्वस्थता- रुग्णता आदि सभी परिस्थितियाँ कर्मों के आधीन हैं। शुभ और अशुभ कर्मों के फलस्वरूप सुखदायी और दु:खदायी परिस्थिति सामने आती रहती हैं; परन्तु उस परिस्थिति से सम्बन्ध जोड़कर उसे अपना मानकर सुखी-दुःखी होना अज्ञानता है। ___ जहाँ अज्ञान तथा विषय रति दोनों ही हैं वहाँ मिश्रभाव होता है अर्थात् ज्ञानावरण का उदय और दर्शन मोह का उदय साथ होकर अज्ञान के साथ मिथ्यात्व भाव होता
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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