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________________ ११४ नैषधमहाकाव्यम् __ जीवातु- इतीति । इतीत्थं खगो हंसस्तं नृपम् ईदृशर्दोषालम्भरित्यर्थः, वाङ्मयैर्वाग्निकारैः ‘एकाचो नित्यं मयटमिच्छती'ति विकारार्थे मयट्प्रत्ययः । पक्षिकथनात् चित्रं, परैः स्वाकार्योद्घाटनादपत्रपा वैलक्ष्यं, परात्तिदर्शनेन तन्निवर्त्तनेच्छा वा कृपा, ताभिः सह वर्तत इति सचित्रवैलक्ष्यकृतं विरचय्य विधाय 'ल्यपि लघुपूर्वादि'त्ययादेशः । दयासमुद्र तदाशये तच्चित्ते कारुण्यरसापगाः करुणारसनदीः गिरः अतिथीचकार प्रवेशयामासेत्यर्थः समुद्दे नदीप्रवेशो युक्त इति भावः ।। १३४ ।। अन्वयः-सः खगः इति ईदृशैः वाङ्मयः तं नृपं सचित्रवलक्ष्यकृपं विरचय्य दयासमुद्र तदाशये कारुण्यरसापगाः गिरः अतिथीचकार । हिन्दी-उस पक्षी ( हंस ) ने इस प्रकार के उपर्युक्त वचनों द्वारा उस राजा को विस्मय, दुःख और कृपा से पूर्ण बनाकर दया के सागर रूप उसके हृदयमे करुणारस की नदी रूप वाक्समूह का प्रवेश कराया। टिप्पणी--नल के द्वारा पकड़े हंस ने पूर्व (१२८-१३३ ) छः श्लोकों में जो तर्कसंमत और न्यायसिद्ध वचन कहे, वे प्रत्येक सज्जन को विचार करने में विवश करने के तिमित्त पर्याप्त थे, फलस्वरूप राजा को इस प्रकार की मानवोचित वाणी और विचार पर आश्चर्य, स्वाभाविक करुणा और खेद हुआ और हस ने इस प्रकार की स्थिति देख उपयुक्त समझा कि राजा की करुणा को तीव्र बनाया जाय । विद्याधर के अनुसार अनुप्रास और रूपक, चंद्रकलाकार के अनुसार श्लिष्टपरम्पित रूपक ॥ १३४॥ मदेकपुत्रा जननी जरातुरा नवप्रसूतिवरटा तपस्विनी। गतिस्तयोरेष जनस्तमईयन्नहो विधे ! त्वां करुणा रुणद्धि नो ॥१३॥ जीवातु-तावद्गिरः प्रपञ्चयति-मदित्यादिना। तत्र तावद् देवमुपालभते हे विधे ! जननी अहमेवैकः पुत्रो यस्याः सा मदेकपुत्रा मम नाशे तस्या गत्यन्तरं नास्तीत्यर्थः । जरातुरा स्वयमप्यसमर्थेत्यर्थः, वरटा स्वभार्या हंसस्य 'योषिद्वरटे'त्यमरः । नवप्रसूतिरचिरप्रसवा तपस्विनी शोच्या एव जनः स्वयमित्यर्थस्तयोर्जायाजनन्योर्गतिः शरणं तं जनं मामित्यर्थः, अर्दयन् पीडयन्
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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