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________________ प्रथमः सर्गः ११५ हे विधे ! विघातः ! त्वां करुणा नो रुणद्धि मत्पीडनान्न निवारयतीति काकुः, न रुणद्धि किमित्यर्थः ॥ १३५ ॥ अन्वयः - मदेकपुत्रा जननी जरातुरा, वरटा नवप्रसूतिः तपस्विनी; एषः जनः तयोः गतिः, अहो विधे, तम् अयन त्वां करुणा न रुणद्धि | हिन्दी -- मैं ही जिसका एक पुत्र हूँ, ऐसी मेरी माता बुढ़ापे से पीडित है, मेरी पत्नी को अभी निकट अतीत में ही प्रसव हुआ है, वह दीना है, यह जन ( मैं हंस ) ही उन दोनों का जीवन साधक हूँ, अरे विधाता, उस ( मुझे ) को पीडा देते-मारते तुझे करुणा नहीं रोकती ? टिप्पणी- - राजा के हृदय में आश्चर्य, दुख और करुणा जगाकर करुणा को और भी तीव्रतर बनाने के लिए विधाता को अथवा उसी मिस राजा को संबोधित करते हुए हंस ने इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया। अपनी माता और पत्नी का जीवनाश्रय एक मात्र वही था, इसे प्रमाणित करने के लिए अपनी माँ को विवश, बूढ़ी, पीडिता बताया, जो उस अकेले बेटे के अभाव में निश्चय ही मर जायेगी। उसकी पत्नी बूढ़ी तो नहीं है, परन्तु 'नवप्रमूर्ति' होने से वह श्री अच्छी स्थिति में नहीं है, पतिव्रता होने से वह मेरे बाद दूसरा पति भी नहीं ढूंढ़ लेगी, सो उसको भी दुर्गंति होगी। ऐसे माँ और पत्नी के एक मात्र आश्रय को मारने में मारक के हृदय में करुणा न उत्पन्न होना ही आश्चयं है । यद्यपि आगे उसका सन्दर्भ नहीं बैठता, तथापि 'प्रकाश' - कार ने अन्य प्रकार से पदच्छेद करके इस श्लोक में एक अन्य अर्थ की संभावना भी दिखायी है । उनके अनुसार हंस ही अपने एक मात्र नवजात पुत्र और नवप्रसूता भार्या का आसरा है— मदेकपुत्रा | मत्तः एकः पुत्रो यस्याः सा मुझसे ही जिसे एकमात्र पुत्र जन्मा है ), अजननी ( आगे वह 'जननी' न बन सकेगी ) । यह ठीक है कि अभी वह बूढ़ी नहीं है - 'जरातुरा न' परन्तु वह 'तपस्विनी वरटा' ! वह बेचारी दीन घरनी) मेरे न रहने से यदि कहीं शरण पासकेगी तो वप्र अर्थात् पर्वतशिखर पर ही - वप्र एव सुतराम् ऊतिः रक्षणं यस्याः सा । विद्याधर के अनुसार परिकर अलंकार क्योंकि यहाँ सामिप्राय विशेषणों का प्रयोग है - उक्तैविशेषणः सामिप्रायः परिकरः ।। १३५ ।।
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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