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________________ प्रथमः सर्गः ११३ अन्वयः-पदे पदे रणोद्भटाः भटाः सन्ति, तेषु एष, हिंसारसः न ते नृपतेः ईदृशं कुविक्रमं धिक्, यः कृपाश्रये कृपणे पतत्तिणि पूर्यते । हिन्दी--पग-पग पर रणबांकुरे योद्धा हैं, उनमें तेरा यह हिंसारस पूर्ण नहीं होता ? तुझ राजा के ऐसे कुत्सित पराक्रम को धिक्कार, जो दयापात्र बेचारे ( निरीह ) पक्षो पर पूर्णता को पा रहा है । टिप्पणी--निर्बल निरीह पर दिखाया गया पराक्रम निन्दनीय ही होता है, पराक्रम-प्रदर्शन तो समानबल योद्धा पर किया जाना उचित है, सो निरीह-पक्षी का वध निन्दनीय हो होगा । विद्याधर के अनुसार विदग्धानुप्रास ॥१३२॥ फलेन मूलेन च वारिभूरुहां मुनेरिवेत्थं मम यस्य वृत्तयः । त्वयाऽद्य तस्मिन्नपि दण्डधारिणा कथं न पत्या धरणी हणीयते ॥१३३॥ जीवातु-फलेनेति । यस्य मम मुनेरिव बारिभूरुहां जलरुहां पद्मादीनाम् अन्यत्र वारिरुहां भूरुहाञ्च फलेन मूलेन चेत्थमनेन दृश्यमानप्रकारेण वृत्तयो जीविकाः तस्मिन् अपि अनपराघेऽपीति भावः । दण्डधारिणा दण्डकारिणा अदण्डयदण्डकेनेत्यर्थः । पत्या त्वया हेतुना अद्य घरणी कथं न हणीयते जगुप्सत एवेत्यर्थ, हृणीयते कण्ड्वादियगन्ताल्लट् तत्र हृणीङिति ङित्करणादात्मनेपदम् । अकार्यकारिणं भर्तारमपि हन्ते स्त्रिय इति भावः ॥ १३३ ॥ अन्वयः-मनेः इव यस्य मम वारिभूरुहां फलेन मलेन च इत्थं वृत्तयः तस्मिन् अपि त्वया दण्डधारिणा पत्या घरणी अद्य कथं न हणीयते । हिन्दी-मुनि के समान जिस मेरा जीवन-व्यापार कमलों के फलमूल-द्वारा चलता है, उस मुझ पर तुझ दंडधारी पति के कारण घरती आज क्यों लज्जित नहीं होती? टिप्पणी-कंदमूलफलाशी मुनि पर दंड उठाने वाले व्यक्ति के कारण उसकी पत्नी का लज्जित होना ही स्वाभाविक है, ऐसी ही स्थिति उस समय पृथ्वीपति की थी। विद्याधर ने यथासंख्य और उपमा अलंकार का निर्देश किया है। इतीदर्शस्तं विरचय्य वाङ्मयैः सचित्रवैलक्ष्यकृपं नृपं खगः। दयासमुद्रे स तदाशयेऽतिथीचकार कारुण्यरसापगा गिरः ॥ १३४ ॥ ८० प्र०
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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