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________________ चरकसंहिता - भा० टी० ॥ वेश्यपिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकशृङ्गवेरसेिदेनयवाग्वादि - 'नाक्रमेणउपक्रामयेत् ॥ २४ ॥ जब देखे कि यह रोगी यथोचित विरिक्त (वमन विरेचन द्वारा शुद्ध ) होगया तब दिनकी पिछले प्रहरमें अपामार्गके सुखोष्ण क्वाथ द्वारा परिसेचन करे । और उसी काय द्वारा वाह्य और आभ्यान्तर सम्पूर्ण जलके कार्योंको साधन करे । अर्थात् अपामार्गके काथसे ही हाथ, पांव धोना, कुल्ला, स्नान आदि सब काम करे | यदि उस समय अपामार्गका क्वाथ न मिल सके तो कटु, तिक्त द्रव्योंके कषायसे अथवा गोमूत्र और क्षार मिलेहुए सुखोष्ण जलसे स्नान आदि करावे । स्नान करने के अनन्तर निर्वात स्थानमें रक्खे और पिप्पली, पिपलामूल, चव्य, चित्रक और अदरख इनके संयोगसे सिद्ध की हुई यवागू पीनेको देवे । तथा विधि-वत् सब उपचार करे ॥ २४ ॥ विलेपीक्रमागतःञ्चैनमनुवासयेद्विडङ्गतैले नै कान्तद्विनिर्वायदि पुनरस्थातिप्रवृद्धाच्छीर्षादीन्क्रिमन्मन्येत, शिरस्येवअभिसर्पतःकदाचित्ततः स्नेहस्वेदाभ्यामस्यशिरउप राद्यविरेचयेदपामार्गतण्डुला दिनाशिरोविरेचनेन ॥ २५ ॥ (५७८ ) . उस यवागू पीने के अनन्तर क्रमपूर्वक विलेपी सेवन करावे। फिर दो तीन दिनके अन्तरवायविडंग के तेल से अनुवासन कर्म करे यदि फिर भी देखे कि इसके शिर आदि अंगों में कृति बढे हुए हैं तो शिरोविरेचन करानेके लिये पहिले शिरको स्नेहन और स्वेदन करके फिर अपामार्ग तण्डुल आदि शिरोविरेचन द्रव्योंद्वारा शिरका विरेचन करे ॥ २५ ॥ कृमिनाशक औषधि | यस्त्वभ्याहाय्योविधिःप्रकृतिविघातायोक्तः क्रिमीणां, सोऽनुव्याख्यास्यते । मूषिकपर्णीसमूलाग्र प्रतानामपहृत्य खण्डशश्छेदयित्वाउलूखलेोदायित्वापाणिभ्यां पीडयित्वाचरसंगृह्णीयांत् । तेनरसेन लोहितशालितण्डुलपिष्टसमा लोड्य पालकांकृत्वात्रिधूमेषु अङ्गारेषुविपाच्य विडङ्गतैललवणोपहितांक्रिमिकोष्ठायभक्षयितुं प्रयच्छेत् । तदनन्तरञ्चअम्लकाञ्जिकमुदश्विद्वापिप्पल्यादिपञ्चवर्गसंसृष्टसलवणमनुपाययेत् ॥ २६ ॥
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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