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________________ चरकसंहिता - भा० टी० । मारीचिका प्रश्न | तच्छ्रुत्वावाक्यविद्वचामारीचिरुवाच । यद्यप्येवमेतत्किमर्थस्यास्ववचनेविज्ञानेवासामर्थ्यमस्तिभिषग्विद्यायाम् । भिषग्विद्यांवाधिकृत्यकथाप्रवर्त्तते । वायविदउवाच । भिषक्पवनमतिबलमतिपरुपमतिशीघ्रकारिणमात्ययिकञ्चेन्नानुनिशम्येत् ॥ ॥ १३ ॥ सहसाप्रकुपितमतिप्रयतः कथमग्रेऽभिरक्षितमभिधास्यति । प्रागेवैनमत्ययभयादिति । वायोर्यथार्थास्तुतिरपिभवत्यारोग्यायवलवर्णवृद्धयेव चस्वित्वायोपचयायच । ज्ञानोपपतये परमायुःप्रकर्षायति ॥ १४ ॥ वायोंविद के इस वाक्यको सुनकर मरीचि ऋषि वोले । जैसा आप कहते हैं यदि चाय ऐसा ही है तो इस वायुके कहने और स्वरूप जाननेके लिये वैद्यकशास्त्रमें क्या प्रयोजन है अर्थात् वाह्यवायुका इस प्रकारका प्रस्ताव पदार्थविद्यामें होना चाहिये "वैद्यकका संबन्ध इस प्रस्तावसे नहीं क्योंकि इस समय आयुर्वेदको आश्रम करके ही इस कथा ( बात ज्ञान ) को प्रवृत्ति है । यह प्रश्न सुनकर वायविद बोले कि यहां पर इस कथनका यह प्रयोजन है कि वैद्यजन पवनको अतिवेगसे चलता हुआ, अतिकठोर, अतिशीघ्रकारी, और विकारोंको करनेवाला जानलेवें ॥ १३ ॥ फिर शीघ्र ही उसके कोप से होनेवाले अनिष्टांसे वचानेके यत्न में समर्थ हों यादे वैद्य पवनकी गतिसे उसके विकार आदिको न समझेगा तो होनेवाले भयसे पहले हो रक्षा किसप्रकार करसकेंगा | शुद्ध वायुका यथार्थ सेवन करनेसे आरोग्यताकी प्राप्ति, वल और वर्णकी वृद्धि होती है । तेजस्विता और पुष्टता प्राप्त हो और ज्ञानकी प्रतिपत्ति तथा युकी वृद्धि होती है ॥ १४ ॥ पिकी ऊष्माका वर्णन | मारीचिरुवाच । अग्निरेवशरीरेपित्तान्तर्गतः कुपिताकुपितःशुभाशुभानिकरोति ॥ 1 ₹ १४० ) तद्यथा । पक्तिम पक्तिदर्शनमदर्शनं मात्रामात्रत्वमृष्मणः प्रकृतिविकृतिवर्णोऽशौय्यं भर्वक्रोधंहर्षमाहंप्रसादमित्येवमादीनिचापराणि इन्हादीनीति ॥ १५ ॥
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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