SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मन, वचन, काया से इस प्रकार धर्मप्रवृत्ति करते हुए प्राणी मन में तीव्र संस्कारों का आधान करते हैं (९१) धर्म की प्रवृत्ति से धर्म का आचरण करने की शक्ति बढ़ती है । धर्म में उल्लास बढ़ता है । नया कौशल उत्पन्न होता है । (९२) शुभ भावों के अनुवर्ती भाव भी शुभप्रद अर्थात् पुण्य देने वाले होते हैं । ये शुभ भाव पवित्र धर्माचार से मीलते है । (९३) धर्म से ही गुणों की उत्पत्ति, स्थिरता और विकास होता है। धर्म को गुणरूप धरती पर विमल महामेघ समान माना गया है । (९४) T दोषों का ह्रास, विनाश और अनुत्पत्ति धर्म से ही होती है । धर्म सदा शुद्धिकारक होता है । (९५) इस वातो को याद रखकर मैं धर्म में श्रद्धावान् बनूँगा और आत्मा का हित करूँगा । मेरे विलम्ब से तो मुझे ही हानि होती है । (९६) तृतीय स् ७३
SR No.009509
Book TitleSamvegrati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamrativijay, Kamleshkumar Jain
PublisherKashi Hindu Vishwavidyalaya
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy