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________________ जो अल्प धर्मसाधना करते हुए अपने को धार्मिक समझता है वह थोड़े धन से क्या खुद को धनवान समझता है ? (८५) महानगर को जलाने वाली, दारूण, भयंकर आग एक मटके भर शीतल पानी से शान्त नहीं होती । (८६) उसी प्रकार अनादि संसार के संस्कार आत्मा में स्थित है, वे अत्यन्त चिकने है, थोड़ी सी धर्म साधना से वे साफ नही होते । (८७) बढ़ती सम्भव हो, तो निरन्तर सम्भव हो, तो निरन्तर धर्मवृद्धि करनी चाहिए । शक्तियों के प्रयोग से ही शक्तियाँ बढ़ती है । (८८) मालपुण्यबन्ध के अमोघ का पुण्यबन्ध के अमोघ कारण को धर्म कहते हैं। विशुद्ध भावों से पुण्यानुबन्धी पुण्य मीलता है । (८९) कर्म की निर्जरा धर्म से होती है। ज्ञानपूर्वक धर्म करने से सकामनिर्जरा होती है। (९०) तृतीय प्रस्ताव ७१
SR No.009509
Book TitleSamvegrati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamrativijay, Kamleshkumar Jain
PublisherKashi Hindu Vishwavidyalaya
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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