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________________ इन अनुभूत भावों की पुनः उत्पन्न होने की जो योग्यता है, उसे ही धर्मोपदेशकों ने 'संस्कार' शब्द से उल्लेखित किया है । (६१) संस्कार का लक्षण त्रिविध है - वह निमित्त का अनुगामी होता है, वह पुनरावर्तन पाता है, वह कर्म के उदय के वश में होता है । (६२) वस्तुतः यह संस्कार कर्मोदय की शरणागति है। इस निर्बलता / असहाय स्थिति को धर्म से दूर करनी चाहिए । (६३) कर्म से रहित आत्मा शुद्ध चैतन्यमय है। आत्मा से रहित कर्म निरन्तर जड़ रहता है । (६४) आत्मा कर्म से रहित होता है तो आत्मा को अनन्त सुख मीलता है । कर्म आत्मा से रहित होता है तो कर्म में सिर्फ जडता होती है । (६५) जो आत्मा का स्पर्श नहीं कर पाता वह कर्म कार्मणवर्गणा है, वह मुंह में न लिये हुए विष की तरह फलहीन और प्रभावहीन है । (६६) प्रथम प्रस्ताव
SR No.009509
Book TitleSamvegrati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamrativijay, Kamleshkumar Jain
PublisherKashi Hindu Vishwavidyalaya
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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