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________________ प्रथम प्रस्ताव आत्मा का कर्म के साथ योग ही वास्तविक संसार कहा गया है। तीर्थंकरों ने इस योग के विनाश के लिए धर्म का उपदेश दिया है। (१) यह आत्मा अनादि है । इसका कर्म से योग भी अनादिकाल से है, किन्तु आत्मा अनन्त है । कर्म से इसका योग अनन्त भी हो सकता है, और सांत भी हो सकता है। (२) जिनकी मनोवृत्तियाँ या चित्त के परिणाम अधर्म से ग्रस्त है, उन आत्माओं का कर्म से संयोग अनन्त रहता है, और जिनका चित्त धर्म से सम्पन्न अर्थात् धर्मयुक्त हैं, उनका कर्म से संयोग सांत है। (३) T जिससे आत्मा का कर्म से योग दृढ़ हो, उसे अधर्म कहते हैं । जिससे कर्म का योग शिथिल हो, उसे जिनेन्द्र देवों ने सच्चा धर्म कहा है । (४) कर्मों की उदयावस्था वर्तमानकालीन संसार है । इस उदयावस्था का कारण आत्मा में कर्मों का विद्यमान होना है। (५) कर्मों का आत्मा से बन्धना ही कर्मों की आत्मा में स्थिति का कारण है। मुख्यतया उस बन्ध को रोकने के लिए धर्म का उपदेश दिया गया है । (६) प्रथम प्रस्ताव ३
SR No.009509
Book TitleSamvegrati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamrativijay, Kamleshkumar Jain
PublisherKashi Hindu Vishwavidyalaya
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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