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________________ १७९ गाथा-४५ विगत गाथा में कहा गया है कि ह्र “यदि द्रव्य गुणों से अन्य (भिन्न) हो और गुण द्रव्य से अन्य (भिन्न) हों तो या तो एक द्रव्य को अनन्तता का प्रसंग प्राप्त होगा या फिर द्रव्य के अभाव का प्रसंग प्राप्त होगा, जो संभव नहीं है। अब इस गाथा में कहते हैं कि द्रव्य और गुणों के कैसा अनन्यपना है ? मूलगाथा इसप्रकार है ह्र अविभत्त मणण्णत्वं दव्व गुणाणं विभत्तमण्णतं । छन्ति णिच्छयण्हू तव्विवरीदं हि वा तेसिं ।।४५।। (हरिगीत) द्रव्य अर गुण वस्तुतः अविभक्तपने अनन्य हैं। विभक्तपन से अन्यता या अनन्यता नहिं मान्य है।।४५|| द्रव्य और गुणों के अविभक्त रूप अनन्यपना है। निश्चयनय से विभक्तरूप से न तो अन्यपना है और न अनन्यता ही है। ___ आचार्य अमृतचन्द अपनी समय व्याख्या टीका में इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ह्र द्रव्य और गुणों के स्वोचित् अविभक्त प्रदेशत्व स्वरूप अनन्यपना घटित होता है। विभक्त प्रदेशत्व स्वरूप अन्यपना एवं अनन्यपना नहीं है। जिसप्रकार एक परमाणु एवं उनके साथ उसमें रहने वाले स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि गुणों के समान अनन्यता है, उसीप्रकार आत्मा का ज्ञान दर्शन आदि से अभिभक्तपना है। तथा जिसप्रकार अत्यन्त दूरवर्ती सह्य एवं विंध्यपर्वत के साथ विभक्त प्रदेशत्व के कारण अन्यपना है। वैसा अन्यपना द्रव्य गुण के साथ नहीं है। जीव द्रव्य : द्रव्य और गुणों में अनन्यता (गाथा २७ से ७३) कविवर हीरानन्दजी काव्य के द्वारा यही कहते हैं ह्र (दोहा) अविभक्त अनन्यता, दरव-गुननि मैं होइ। विभक्त्व अन्यत्व फुनि निहचैरूप न कोई ।।२३० ।। अविभक्त और अनन्यता, द्रव्य और गुणों में होती है तथा द्रव्य एवं उसी द्रव्य के गुणों में निश्चय से परस्पर विभक्त्व एवं अन्यत्व नहीं होता। (सवैया इकतीसा) जैसे एक परमानू अपने परदेस सौं, अविभागी सदा काल सो अनन्य बाचै है। रूप-रस-गंध-फास अविभक्त गुण सदा, आनता न परदेस तैसैं एक बाचै हैं ।। जैसे दूर सहा-विद्य एक-मेक दूध-तोय, अविभक्त देसनि सौं अनन्यता जाँचै है। तैसैं द्रव्य-गुण जुदै देस सौ अन्य नाहिं, ताः अविभक्त देससौ अनन्य साँचे हैं ।।२३१ ।। (सोरठा इकतीसा) देस भेद तहि नाहिं, तादातम सम्बन्ध जहि । जुदै नाम दिखराहिं, वस्तु एक दुय भेद हैं ।। उक्त पद्यों में अमिल परमाणु व प्रदेश का उदाहरण देकर द्रव्य व गुणों की अभिन्नता दर्शाते हुए कहा है कि ह्र जैसे एक परमाणु अपने प्रदेश से सदैव अविभागी होने से अनन्य है। उसके रूप रस गंध वर्ण सदैव अभिन्नपने रहते हैं। उसीप्रकार द्रव्य व गुण अभिन्न हैं। कर्म और आत्मा की भिन्नता हेतु दूरवर्ती सह्य और विंध्यपर्वत का उदाहरण देकर कहा है कि परमाणु व प्रदेश सह्य व विधि की भाँति दूरदूर नहीं हैं, फिर दूध और पानी का उदाहरण देकर प्रदेशों से अन्यत्व व अनेकत्व होकर भी स्वरूप से भिन्न नहीं हैं ह्र ऐसा कहा है। (98)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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