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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन ___गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्नद्रव्य व गुण का भाव (अस्तित्व) एक है। यद्यपि द्रव्य व गुण के नाम भिन्न हैं, परन्तु भाव (अस्तित्व) एक हैं। जैसे दूध व उसकी सफेदी में नाम भेद हैं, पर भावभेद नहीं है, उसी तरह आत्मा व ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि गुणों के नाम भेद से भेद है, पर उसके प्रदेश भिन्न नहीं हैं। आत्मा और उसके ज्ञान-दर्शन में लक्षण, संख्या, संज्ञा आदि से भेद होने पर भी उनमें प्रदेश भेद नहीं है। इसप्रकार गुण-गुणी अभेद हैं ह्र ऐसी अन्तर्दृष्टि से धर्म होता है। यद्यपि शरीर व कर्मों का आत्मा से दूध-पानी की भाँति एक क्षेत्रावगाह संबंध दिखाई देता है, परन्तु वे एक नहीं है। इसके विपरीत आत्मा और ज्ञान, दर्शन आदि में लक्षण, संज्ञा, संख्या से भेद दिखाई देता है; परन्तु उनमें प्रदेश भेद नहीं है, वे एक हैं, अभिन्न है। उनका द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव एक हैं।" इसप्रकार उक्त गाथा में तथा टीका और हिन्दी पद्य में दूरवर्ती क्षेत्र के लिए सह्य एवं विंध्यपर्वत का एवं निकटवर्ती अन्यपने के लिए दूध-पानी आदि अनेक उदाहरणों द्वारा यही कहा है कि द्रव्य व गुणों में अविभक्त रूप अनन्यपना अन्यता है तथा विभक्तपने अन्यता व अनन्यता नहीं है। विंध्य पर्वत और दूध-पानी के ये दोनों उदाहरण दूरवर्ती और निकटवर्ती अन्यपने के हैं; आत्मा और गुणों में ऐसा अन्यपना नहीं है। आत्मा व ज्ञानादि गुणों में लक्षण भेद होते हुए भी अनन्यता है। गाथा-४६ विगत गाथा में कह आये हैं कि ह्र द्रव्य और गुणों के अविभक्त रूप अनन्यपना होते हुए भी लक्षण भेद से अन्यपना भी है। निश्चय से न तो विभक्तरूप से अन्यपना है और न विभक्तरूप से अनन्यपना ही है। __ अब इस गाथा में कहते हैं कि ह्र वस्तु के व्यपदेश (कथन) संस्थान, संख्यायें और विषय अनेक होते हैं। वे व्यपदेश आदि द्रव्यों एवं गुणों के अन्यपने में तथा अनन्यपने में भी हो सकते हैं। मूलगाथा इस प्रकार है ह्र ववदेसा संढाणा, संखा विषया य होति ते बहुगा। ते तेसिमणण्णत्ते, अण्णत्ते चावि विज्जंते ।।४६।। (हरिगीत) संस्थान संख्या विषय बहुविध द्रव्य के व्यपदेश जो। वे अन्यता की भाँति ही, अनन्यपन में भी घटे ||४६|| 'जो द्रव्य के व्यपदेश अर्थात् कथन तथा संस्थान, संख्याएँ और विषय अनेक हैं। वे व्यपदेश आदि द्रव्य एवं गुणों के अन्यपने में तथा अनन्यपने में भी होते हैं।' टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि ह्र जिसप्रकार 'देवदत्त की गाय' इस अन्यपने के वाक्य में षष्ठी विभक्ति का कथन होता है, उसीप्रकार वृक्ष की शाखा, द्रव्य के गुण ह्र ऐसे अनन्यपने के वाक्यों में भी षष्ठी विभक्ति का व्यपदेश होता है। अन्यपने का उदाहरण यह है जैसे ह्र देवदत्त बगीचे में धनदत्त के लिए फल को तोड़ता है ह्र ऐसे अन्यपने में कारक व्यपदेश होता है। ___ दूसरा दृष्टांत मिट्टी का दे सकते हैं। जैसे ह्र मिट्टी स्वयं घटभाव को (घड़ा रूप परिणाम को) अपने द्वारा अपने लिए अपने में से अपने में करती है। इसीप्रकार आत्मा में घटा सकते हैं। (99) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १२८, पृष्ठ ११९७, दिनांक ९-३-५२
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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