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________________ १७६ पञ्चास्तिकाय परिशीलन जौ पै जुदा द्रव्य तौ पै गुन और द्रव्य चहै, सौ भी द्रव्य जुदा गुन और द्रव्य चहै है ।। गुन अर गुनी विषै लसै तादातम संबंध, को भिन्नभाव के लखत ही, वस्तु न देखे अंध ।। २२८ ।। कवि उपर्युक्त सवैया में कहते हैं कि ह्न 'गुण द्रव्य के आश्रय होते हैं। अतः द्रव्य आश्रयी कहलाता है। दोनों अविनाभावी हैं। यदि गुण द्रव्य से अलग करते हैं तो वह गुण अन्य द्रव्य का आश्रय चाहेगा; क्योंकि गुण का आश्रयदाता तो द्रव्य है। इसप्रकार अनावस्था दोष आयेगा । गुण गुणी में तारतम्य संबंध है, अतः द्रव्य गुण से भिन्न नहीं हो सकता । गुण व गुणी में तादात्म्य संबंध है। जो गुण व गुणी को भिन्न देखते हैं वे तत्त्वज्ञान से अंध हैं। गुरुदेव श्रीकानजी स्वामी कहते हैं कि ह्र जिसप्रकार आत्मा से शरीर जुदा है, वैसे आत्मा और गुण जुदै नहीं हैं। यद्यपि भेद की अपेक्षा संज्ञा, संख्या एवं लक्षण आदि से भेद है; परन्तु गुण-गुणी में सर्वथा प्रकार से भेद माने तो एक द्रव्य के अनन्त भेद (खण्ड) होने का प्रसंग प्राप्त होगा। अथवा गुणों के जुदा करने से द्रव्यों का ही अभाव हो जायेगा । आत्मा त्रिकाली वस्तु हैं, उसमें ज्ञान दर्शन आदि गुण हैं। उनमें नाम तथा लक्षण अपेक्षा भेद होने पर भी गुण-गुणी एवं प्रदेश भेद नहीं है। आत्मा में ज्ञान दर्शन, स्वच्छत्व, विभुत्व कर्त्ता करण वगैरह अनन्त शक्तियाँ हैं, वे अंश हैं, भेद हैं, अनेक हैं तथा गुणी, अंशी अर्थात् आत्मा एक हैं तथा वह गुणों को आधार देने वाला है। अपने गुणों का आधार शरीर, कर्म आदि पर वस्तु नहीं है। ऐसी अभेद की श्रद्धा कर तो धर्म होता है। (97) जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) १७७ जगत के भोले प्राणी यह मानते हैं कि सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की शरण हो, स्वस्थ शरीर हो, एकान्तवास हो, बाहरी सभी प्रकार की अनुकूलता हो तो ही धर्म हो सकता है। इसप्रकार धर्म करने के लिए जो बाहर के द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अनुकूलता का कारण मानता है, वह भ्रम में है, क्योंकि वह धर्म का आधार परवस्तु को मानता है, जबकि धर्म का आधार आत्मा है । इसप्रकार जो व्यक्ति द्रव्य को गुणों से सर्वथा भिन्न या अन्य मानते हैं तथा गुणों को द्रव्य से सर्वथा भिन्न या अन्य मानते हैं, वे भ्रम में हैं; क्योंकि ऐसा मानने पर प्रथम तो वह आत्मा अपने गुणों से अलग होते ही अनन्तता को प्राप्त होगा। या फिर गुणों का समूह आत्मा से अलग होते ही आत्मा गुणहीन हो जाने से आत्मा का अस्तित्व ही नहीं रहेगा; क्योंकि गुणों का समूह ही तो द्रव्य है। कहा भी है ह्न 'गुण समुदायो द्रव्यं' । अतः गुणों का आत्मा से पृथक् होना संभव ही नहीं है। " सम्पूर्ण कथन का सार (तात्पर्य) यह है कि ह्न अपने गुण अपने आत्मा में से ही प्रकट होते हैं ह्र गुण-गुणी में भले लक्षण भेद हों; पर प्रदेशों की अपेक्षा दोनों अभेद हैं। ऐसा गुण-गुणी को अभेद मानकर श्रद्धा करे तो धर्म का प्रारंभ होता है। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १३८, पृष्ठ १०७२, दिनांक ८-३-५२
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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