SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ पञ्चास्तिकाय परिशीलन इस गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेव श्री कानजी स्वामी कहते हैं ह्र यद्यपि उपयोग ज्ञानगुण की पर्याय है, तथापि चैतन्य की सामर्थ्य त के लिए उसको यहाँ गुण कहा है। इस गाथा में चेतना गुण के बारह भेद और उनकी सामर्थ्य बतलाई है। वास्तव में चेतना गुण के ज्ञान-दर्शन के भेद से दो प्रकार के परिणाम हैं। वे आत्मा से होते हैं, इन्द्रिय मन के कारण अथवा वाणी या शास्त्र आदि से नहीं होते । शास्त्र वाणी आदि तो पुद्गलास्तिकाय हैं। उपयोगरूप परिणाम जीवास्तिकाय में होते हैं। अपने ज्ञान का व्यापार असंख्य प्रदेशों में स्वयं के कारण स्वयं की सत्ता से होता है। व्यवहार से आत्मा तथा उपयोग में भेद है। केवलज्ञान और केवली ऐसा गुण-गुणी भेद से भेद होने पर भी प्रदेशभेद से भेद नहीं है। जिसतरह गुड़ व मिठास में व्यवहार से भेद होने पर भी परमार्थ से भेद नहीं है; क्योंकि गुण का नाश होने पर गुणी का और गुणी का नाश होने पर गुण नाश होता है, इसलिए गुण-गुणी एक हैं। " इसप्रकार इस गाथा में उपयोग का स्वरूप एवं भेद बताकर उससे आत्मा को अभेद सिद्ध किया है। १. श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. १३४, पृष्ठ १०५३, दिनांक ५-३-५२ (88) गाथा - ४१ ४०वीं गाथा में कह आये हैं कि चैतन्यानुविधायी ज्ञान - दर्शनरूप उपयोग जीव को अनन्यरूप से सर्वकाल में होता है। अब प्रस्तुत गाथा में उपयोग के आठ भेदों की चर्चा करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि । कुमदिसुदविभंगाणि य तिण्णि वि णाणेहिं संजुत्ते ।।४१ ।। (हरिगीत) मतिश्रुतावधि अर मनः केवल ज्ञान पाँच प्रकार हैं। कुमति कुश्रुत विभंग युत अज्ञान तीन प्रकार हैं ||४१|| मति - श्रुत-अवधि- मन:पर्यय और केवलज्ञान ह्न इसप्रकार ज्ञान के पाँच भेद हैं; और कुमति - कुश्रुत तथा कुअवधिज्ञान ह्न मिथ्याज्ञान भी पाँच ज्ञान के साथ संयुक्त हैं। सब मिलाकर ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में स्पष्ट करते हैं कि ह्न यहाँ ज्ञानोपयोग के भेदों के नाम और स्वरूप का कथन है। वहाँ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ह्र इसप्रकार ज्ञानोपयोग के आठ भेदों का कथन है। “आत्मा वास्तव में अनन्त (सर्व) आत्मप्रदेशों में व्यापक विशुद्ध ज्ञान सामान्यस्वरूप है। वह सामान्यज्ञानस्वरूप आत्मा अनादि से मतिज्ञानावरण कर्म से आच्छादित प्रदेशवाला होता हुआ प्रवर्तित है । जब मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से वह सामान्यज्ञान मतिज्ञान के रूप में प्रगट होता है, तब मन और पाँच इन्द्रियों के अवलम्बन से किंचित् मूर्तिक/अमूर्तिक द्रव्य को परोक्षरूप जानता है, उस ज्ञानविशेष का नाम अभिनिबोधिकज्ञान या मतिज्ञान है।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy