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________________ १६० पञ्चास्तिकाय परिशीलन वही ज्ञान श्रुत ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से मन के अवलम्बन द्वारा वस्तु को परोक्ष (विकल) रूप से जानता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। इसीप्रकार के अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से ही मूर्तद्रव्य का विकलरूप से अवबोधन करना अवधिज्ञान है तथा इसीप्रकार मनःपर्यय आवरणवरण के क्षयोपशम से ही परमनोगत मूर्तद्रव्य का विकलरूप से विशेषतः अवबोधन करना मन:पर्यय ज्ञान है। समस्त आवरण के अत्यन्त क्षय से मूर्त-अमूर्त द्रव्य का सकलरूप से विशेषतः अवबोधन करना स्वाभाविक केवलज्ञान है। मिथ्यादर्शन के उदय के साथ का अभिनिबोधिक ज्ञान कुमति एवं मिथ्यादर्शन के उदय के साथ का श्रुतज्ञान कुश्रुत ज्ञान है। इसीतरह मिथ्यादर्शन के उदय के साथ का अवधिज्ञान कुअवधिज्ञान है। ___ तात्पर्य यह है कि निश्चय से अखण्ड एक विशुद्ध ज्ञानमय आत्मा और व्यवहारनय से संसारावस्था में कर्म आवृत्त आत्मा जब मति, श्रुत, अवधि ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर पाँच इन्द्रियों और मन से मूर्तअमूर्त वस्तुओं को विकलरूप से जानता है तो आत्मा का वह ज्ञान क्रमश: मति, श्रुत, अवधि नाम पाता है। वह ज्ञान तीन प्रकार का है ह्र १. उपलब्धिरूप, २. भावनारूप और ३. उपयोगरूप । मतिज्ञानावरण एवं श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से जनित अर्थ ग्रहण शक्ति उपलब्धि है। जाने हुए पदार्थ का पुन: पुन: चिन्तन भावना है और यह काला' है, 'यह पीला' है इत्यादि रूप से अर्थ ग्रहण व्यापार उपयोग है। अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर मूर्तवस्तु को जो प्रत्यक्षरूप से जानता है, वह अवधिज्ञान है। अवधिज्ञान में भी लब्धिरूप और उपयोगरूप ह्न ये दो भेद ही होते हैं। अवधिज्ञान देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ह्र के भेद से भी तीन प्रकार के होता हैं। जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) परमावधि और सर्वावधि ह्न चैतन्य के उछलने के भरपूर आनन्दरूप परम सुखामृत के रसास्वादनरूप समरसी भाव से परिणत चरमदेही तपोधनों को होता है। ___मनःपर्यय ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर मनोगत मूर्त वस्तु को जो प्रत्यक्षरूप से जानता है, वह मन:पर्ययज्ञान है । ऋजुमति और विपुलमति रूप इसके दो भेद हैं । विपुलमति पर के मन में स्थित वक्रता को भी जान लेता है, जबकि ऋजुमति मात्र सरल (अवक्र) परिणामों को ही जानता है। ये दोनों ही मनःपर्ययज्ञान आत्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठान की भावना सहित पन्द्रह प्रमादरहित अप्रमत्त मुनि के विशुद्ध परिणामों में ही उत्पन्न होते हैं। बाद में प्रमत्त गुणस्थान में भी इसका अस्तित्व बना रहता है। सर्वप्रकार से ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय होने पर जिस ज्ञान के द्वारा समस्त मूर्तिक-अमूर्तिक द्रव्य अपने-अपने गुण-पर्याय सहित प्रत्यक्ष जाने जाय, उस ज्ञान का नाम केवलज्ञान है। इसप्रकार आचार्य अमृतचन्द्र ने इस गाथा में ज्ञान के आठ भेदों का परिचय कराया। आचार्य जयसेन ने अति संक्षेप में मात्र आठ भेदों के नाम गिनाते हुए मात्र इतना कहा कि ह्र जैसे एक ही सूर्य मेघ के आवरण वश अपनी प्रभा की अपेक्षा अनेकप्रकार के भेदों को प्राप्त हो जाता है, उसीप्रकार निश्चयनय से अखण्ड एक प्रतिभास स्वरूपी आत्मा भी व्यवहारनय की अपेक्षा कर्म समूह से वेष्टित होता हुआ मतिज्ञानादि भेदों द्वारा अनेकप्रकार के भेदों को प्राप्त हो जाता है। इसी भाव को कविवर हीरानन्दजी ने इसप्रकार व्यक्त किया हैं ह्र (दोहा) सुद्ध असुद्ध सुभावकरि, उपयोगी दुय भेद । तजि असुद्ध पहिली दसा, सुद्ध सुभाव निवेद ।।२१७।। अभिनिबोध-श्रुत-अवधि-मनपरजै-केवलग्यान । कुमति-कुश्रुत-विभंग है, तीन अग्यान समान ।।२१८।। (89)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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