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________________ गाथा- ४० विगत गाथा में कहा है कि सभी स्थावर काय के जीव कर्मफल चेतना को वेदते हैं, त्रस जीव कर्मचेतना सहित कर्मफलचेतना को वेदते हैं तथा प्राणों का अतिक्रमण करनेवाले अरहंत सिद्ध जीव ज्ञानचेतना को वेदते हैं। अब प्रस्तुत गाथा में उपयोग का स्वरूप समझाते हैं। मूलगाथा इसप्रकार हैं उवओगो खलु दुविहो णाणेण य दंसणेण संजुत्तो । जीवस्स सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहि ।। ४० ।। (हरिगीत) ज्ञान-दर्शन सहित चिन्मय द्विविध है उपयोग यह । ना भिन्न चेतनतत्व से है चेतना निष्पन्न यह ||४०|| जीव ज्ञान और दर्शन इन दो उपयोग सहित होते हैं। ये दोनों उपयोग सभी जीवों के अनन्य रूप से सदैव रहते हैं। इस गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं ह्र कि आत्मा का चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोग हैं। 'अनुविधायी' अर्थात् अनुसरण करनेवाला । इसप्रकार हम कह सकते हैं कि 'चैतन्य के अनुसरण करनेवाले परिणाम को उपयोग कहते हैं।' वह उपयोग दो प्रकार का है ह्न दर्शन उपयोग और ज्ञानोपयोग । जिस उपयोग में वस्तुओं का विशेष प्रतिभास होता है, वह ज्ञानोपयोग है और जिस उपयोग में वस्तु के सामान्य स्वरूप का प्रतिभास हो, वह दर्शन उपयोग है। वह ज्ञान-दर्शनोपयोग जीव से सर्वदा अभिन्न होता है; क्योंकि वह एक आत्मा के उपयोग से ही रचित है। " (87) जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) १५७ आचार्य जयसेन अपनी टीका में कहते हैं कि वास्तव में जीव के सर्वकाल अनन्यरूप से रहनेवाला ज्ञान और दर्शन से संयुक्त उपयोग दो प्रकार का है। वह उपयोग जीव के साथ नित्यतादात्म्य संबंध होने से अभिन्न है। इसी बात को कवि हीरानन्दजी निम्न पद्यों में कहते हैं ह्र ( दोहा ) ग्यान और दरसन अवर, दोइ भेद उपयोग । अविनाभावी जीवकै, जानत ग्यानी लोग ।। २१५ ।। ( सवैया ) चेतना क्रिया का अनुगामी परिनाम सो है, सोई उपयोग नाम जीवगुन गाया है । तामैं दोइ भेद लसै ग्यान - दृगरूप यामैं, ग्यान है विसेष ग्राही नानाकार पाया है। भेदभाव झारिकरि जाति सामान दरसी, दर्सनोपयोग सोई निराकार भाया है । वस्तु है अभेद उपयोग जीव नाम भेद, अस्ति एकरूप स्याद्भाषा ने बताया है ।। २१६ । । (दोहा) सुद्ध असुद्ध सुभावकरि, उपयोगी दुय भेद । तजि असुद्ध पहिली दसा, सुद्ध सुभाव निवेद ।। २१७ ।। उपयोग चेतना क्रिया का अनुगामी परिणाम है। इसके दो भेद हैं ह्र ज्ञान और दर्शन । ज्ञानगुणविशेषग्राही है और दर्शनगुण वस्तु के सामान्यग्राही है। ये दोनों गुण अविनाभावी हैं। शुद्धोपयोग एवं अशुद्धोपयोग के भेद से भी उपयोग के दो भेद हैं। शुभाशुभभावरूप अशुद्ध उपयोग को त्यागकर शुद्ध उपयोग को प्राप्त होना चाहिए ।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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