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________________ गाथा-३६ विगत गाथा में सिद्ध भगवान के स्वरूप का कथन किया गया है। अब इस गाथा में कहते हैं कि वे सिद्ध भगवान न तो किसी अन्य के कार्य हैं और न अन्य के कारण हैं। मूलगाथा इसप्रकार है ह्र ण कुदोचि वि उप्पण्णो तम्हा कजण तेण सो सिद्धो। उप्पादेदिण किंचि विकारणमवि तेण ण स होदि ।।३६।। (हरिगीत) अन्य से उत्पाद नहिं इसलिए सिद्ध न कार्य हैं। होते नहीं हैं कार्य उनसे अत: कारण भी नहीं।।३६।। वे सिद्ध भगवान किसी अन्यकारण से उत्पन्न नहीं होते; इसलिए किसी के कार्य नहीं हैं और किसी अन्य कार्य को उत्पन्न नहीं करते; इसलिए किसी अन्य के कारण भी नहीं हैं। ____टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि “सिद्धों में परद्रव्य के कारण व कार्यपना नहीं है; क्योंकि उनके द्रव्यकर्मों व भावकर्मों का क्षय हो चुका है। जिसप्रकार संसारी जीव भावकर्मरूप आत्मपरिणाम संतति के कारण और द्रव्यकर्मरूप पुद्गल परिणाम संतति के कारण देव-मनुष्यतिर्यंच और नारक के रूप में उत्पन्न होता है, वही जीव वैसे सिद्धरूप में उत्पन्न नहीं होता; क्योंकि उसके दोनों कर्मों का अभाव हो गया है।" इसी भाव को स्पष्ट करते हुए कवि हीरानन्दजी कहते हैं ह्र (सवैया ) जैसैंकै भाव-दरव-कर्म परिनामनितें, देव-नर-नारकादि काजरूप होई हैं। जैसैं देव आदि नाना कारज करत जीव, कारन-सरूप तातें एकरूप सोई है ।। जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) तैसें सिद्ध-जीव दोऊ करम विनासकरि, आपरूप आप भया दूजा नहिं कोई है। उपजैन नवा किछू नवा उपजावै नाहि, जैसा रूप तैसा लसै सिद्धभाव जोई है ।।१९६।। (दोहा) कारन-काज-विभाव विधि, संसारी महिं साध। सिद्धविर्षे यह विधि नहीं, केवलग्यान अबाध ।।१९८।। जिस तरह संसारी जीव कर्मों के निमित्त से देव आदि गतियों में नाना रूप से परिणमते हैं; वैसे सिद्ध गति में नहीं परिणमते; क्योंकि उनके घाती-अघाती दोनों प्रकार के कर्मों का अभाव हो गया है। सिद्ध अवस्था में जीव अपने स्वभाव में रहता है। कारण कार्य विभाव संसारी जीवों में होता है, सिद्धावस्था में अबाधरूप से केवलज्ञान है, अन्य कुछ नहीं। ___ इस गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र "जैसा कारण होता है, वैसा ही कार्य होता है। संसारी जीवों को कर्म-नोकर्म कारण होते हैं; किन्तु वैसा कार्य-कारणभाव सिद्धों को नहीं होता। सिद्धदशा कर्म के अभाव से नहीं होती, अपने पुरुषार्थ से होती है। सिद्धदशा होने में कर्म तथा नोकर्म निमित्त के रूप में भी नहीं है। यदि कर्मों के अभाव के कारण सिद्ध हुए ह ऐसा माने तो सिद्ध तो सादिअनन्त काल तक टिकते हैं, वहाँ जो अनन्तकाल तक उस सिद्धदशारूप परिणमित होते हैं, उस परिणमन में कारण किसे कहोगे? देखो ! सिद्धपद बाह्य कारण का कार्य नहीं है। किन्तु द्रव्यस्वभाव त्रिकाल चिदानन्द कारणपरमात्मा है, उसका कार्य सिद्धपद है। ___संसारी जीव भी अपनी भूल से ही अज्ञान-राग-द्वेष करता है और उसका कार्य चार गति है, द्रव्यकर्म-भावकर्म तो उमसें निमित्तमात्र हैं, किन्तु ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध भी संसारदशा में है, सिद्धदशा में तो ऐसा कोई निमित्त-नैमित्तिक संबंध भी नहीं है। (79)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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