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________________ १३८ पञ्चास्तिकाय परिशीलन हेतुभूत कषाय और योग का वियोग हुआ है, इसलिए वे अन्तिम शरीरप्रमाण अवगाहरूप परिणत होने पर भी अत्यन्त देहरहित हैं। ऐसे सिद्ध भगवन्त वचनगोचरातीत महिमावंत हैं; क्योंकि लौकिक द्रव्यप्राण के धारण बिना और शरीर के संबंध बिना अपने निरुपाधि स्वरूप से सतत् प्रतापवंत हैं। क्षणिक मतानुयायी बौद्धमती की शंका का समाधान करते हुए जयसेनाचार्य कहते हैं कि सिद्धदशा में जीव का सर्वथा अभाव नहीं हुआ है; क्योंकि सिद्ध शुद्ध सत्ता सहित चैतन्य ज्ञानादिरूप शुद्ध भावप्राण सहित हैं, इसकारण सिद्धावस्था में जीव का सर्वथा अभाव नहीं है। वे द्रव्य एवं भावेन्द्रिय आदि भावप्राणों से रहित होने पर भी चैतन्य प्राणों से प्रतापवान हैं। कवि हीरानंदजी कहते हैं कि द्रव्यप्राणों के बिना भी ज्ञानादि चैतन्य प्राणों से सिद्ध भगवन्तों का अस्तित्व है। वे अनन्त सुखी हैं। (दोहा) जिनकै जीव सुभाव हैं, नहिं अभाव कहि होइ । भिन्न दैह” सिद्ध हैं, कहि करि सके न कोइ ।।१९२।। (सवैया ) सत्ता-सुख-ग्यान-दृष्टि चारौं सुद्ध भाव-प्रान, सिद्ध सदैव यातें जीवता सुहाई है।। कारन कषाय-जोग सिद्धविर्षे नास तातें, देहसौं अतीत देहगाहना रहाई है।। लोक-प्रान देह नाहीं सुद्ध-प्रान गाह माहीं, निरुपाधिरूप सोई प्रभुता दिखाई है।। महिमा अनंत ताकी वचनकै अंत थाकी, भाव-श्रुत-सार जाकी रचना बनाई है ।।१९३।। उपर्युक्त छन्दों में कवि कहते हैं कि सिद्धों के अनादि का वह ज्ञायक जीवस्वभाव है, जिसका कभी अन्त नहीं होता। वे देह और विभाव जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से७३) भावों से भिन्न हैं तथा उनकी महिमा का कथन वचनातीत है। सिद्धजीवों के दर्शनज्ञान, सुख और सत्ता ह्र चारों ही भाव प्राण होने से वे सदैव जीवित हैं। यद्यपि उनके पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, आयु व श्वाच्छोस्वासरूप दस प्राण नहीं हैं, पर उनके उक्त चैतन्य प्राण हैं। इस गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेवश्री कानजी स्वामी कहते हैं कि इस गाथा में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने सिद्धजीवों का स्वभाव तथा उन्हें अन्तिम देह से किंचित् न्यून कहा है। वे कहते हैं कि सिद्ध भगवंतों को परमानन्ददशा का अनुभव होता है। यद्यपि उनको पाँच इन्द्रियाँ मनवचन-काय श्वास और आयु ह्न ऐसे दस प्राण नहीं होते, तथापि उनके सत्ता, सुख, चैतन्य और ज्ञानरूप प्राण होते हैं। वे इनके कारण सिद्धदशा प्राप्त होने के बाद सदा से जीवित हैं और अनन्तकाल जीवित रहेंगे। __आगे कहा कि जैसे निगोद के जीव जीवास्तिकाय हैं, वैसे ही सिद्ध भी जीवास्तिकाय हैं। भले पर्याय में अन्तर है; परन्तु जीवास्तिकाय वैसा ही है, उसमें कोई अन्तर नहीं हुआ। सिद्धान्त में दो तरह के प्राण कहे ह्न एक निश्चय और दूसरे व्यवहार । उनमें शुद्ध सत्ता, शुद्ध सुख, चैतन्य और ज्ञान में ये निश्चय प्राण हैं तथा इन्द्रियादि एवं बल इत्यादि व्यवहार प्राण हैं । इसकारण सिद्धों को कथंचित् प्राण है और कथंचित् नहीं है ह ऐसा अनेकान्त समझना। उनके निश्चय प्राण है और व्यवहार प्राण नहीं है।" इसप्रकार इस गाथा में सिद्ध के स्वरूप और उनकी महिमा बताई है। (78) १.श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. १३०, पृष्ठ १०२६, दिनांक २९-२-५२
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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