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________________ १४२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन संसारदशा में भी ऐसा नहीं होता कि पहले निमित्तरूप कर्म हो और बाद में नैमित्तिक रागादि, यहाँ भी दोनों का काल एक है। एक समय का स्वतंत्र स्वयंसिद्ध सुमेल है। ___ संसारी जीव अनादिकाल से पुद्गल कर्म के कारण से मिथ्यात्व रागादिरूप परिणमित होता है, ऐसा कथन भी निमित्त सापेक्ष है। वस्तुतः तो वह भी स्वयं के विपरीत पुरुषार्थ से ही है, कर्म तो उसमें निमित्तमात्र है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध भी संसारदशा में है, सिद्धों में नहीं। जीव में कर्म से विकार होना माननेवाला मिथ्यादृष्टि है; मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग का कंपन स्वयंसिद्ध अपने से ही होते हैं। निश्चय से शरीर की रचना शरीर के परमाणुओं के कारण होती है और रागी जीव का राग व्यवहार से पर के कारण होता है। यह बात व्यवहार से पर्याय अपेक्षा कही है; परन्तु इससे कोई परस्पर पराधीनता मान ले तो वह मिथ्यादृष्टि है। यदि कोई कहे कि ह्र निमित्त के बिना विकार होता हो तो वह विकार स्वभाव हो जाए; उससे कहते हैं कि ह्र जीव में उस समय स्वयमेव विकारभाव से परिणमन करने की योग्यता है; इसलिए विकार होता है और उससमय सामने द्रव्यकर्म भी निमित्तरूप होता ही है। __ जिनको परमानंद भूतार्थ स्वभाव का पूर्ण आश्रय है ह्र ऐसे सिद्धभगवान अपने परिपूर्ण परमानंद को उत्पन्न करते हैं। वे किसी काल में संसारभाव को उत्पन्न नहीं करते।" इसप्रकार यह सिद्ध है कि जिसप्रकार संसारावस्था में कर्मों के निमित्त से जीवों के देवादि गतियाँ होती है, वैसे सिद्धावस्था में कर्मों की निमित्तता नहीं होती। सिद्धावस्था कर्मों के अभाव के कारण नहीं; बल्कि अपने स्वयं के पुरुषार्थ से होती है। गाथा-३७ विगत गाथा में कहा गया है कि ह्र सिद्ध भगवान किसी अन्य से उत्पन्न नहीं होते। अतः किसी के कार्य नहीं हैं और वे किसी अन्य को उत्पन्न नहीं करते, इसलिए वे किसी के कारण भी नहीं हैं। सिद्ध भगवान केवल अपने परिपूर्ण आनन्द को ही उत्पन्न करते हैं। अब सिद्धावस्था में जीव का सद्भाव दिखाते हैं। सस्सदमध उच्छेदं भव्वमभव्वं च सुण्णमिदरं च। विण्णाणमविण्णाणंण वि जुज्जदि असदिसब्भावे ।।३७।। (हरिगीत) सद्भाव हो न मुक्ति में तो धुव-अधुवता न घटे | विज्ञान का सद्भाव अर अज्ञान असत् कैसे बने? ||३७|| यदि मोक्ष में जीव का सद्भाव न हो तो जीव की ध्रुवता व अध्रुवता ही घटित नहीं होगी तथा विज्ञान व अविज्ञान आदि कुछ भी व्यवस्था नहीं बन सकेगी तथा भव्य-अभव्यपने का व्यवहार भी संभव नहीं होगा; इसलिए यह सिद्ध है कि मोक्ष में जीव का सद्भाव है। आचार्य अमृतचन्द्र ने टीका में यह कहा है कि ह्र जो व्यक्ति जीव के अभाव को मुक्ति कहते हैं, उनकी मान्यता मिथ्या है। वास्तविकता यह है कि प्रथम तो भगवान आत्मा द्रव्यरूप से त्रिकाल शाश्वत है, मुक्ति में भी उसका सद्भाव है। दूसरे, शाश्वत-नित्य द्रव्य में प्रतिसमय पर्याय पलटती है। एक पर्याय नष्ट होती है, दूसरी उत्पन्न होती है । द्रव्य रूप से वस्तु दोनों अवस्थाओं में वही रहती है। तीसरी बात यह है कि ह्र द्रव्य सर्वदा अभूत पर्यायोंरूप से भाव्य है, होने योग्य है। (80) १.श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. १३०, पृष्ठ १०२७, दिनांक १-३-५२
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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