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________________ १०६ पञ्चास्तिकाय परिशीलन अयन ह्न ३ ऋतु का एक अयन और २ अयन का एक वर्ष होता है। गुरुदेवश्री कानजी स्वामी ने उक्त सभी परिभाषाओं को दर्शाते हुए विशेष स्पष्टीकरण यह किया है कि - “कालद्रव्य की पर्याय 'समय' है। जब एक परमाणु मंदगति से आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाता है, उतने समय में कालद्रव्य की एक पर्याय हो जाती है और उस पर्याय का धारक पर्यायवान कालद्रव्य का क्षेत्र अलग नहीं है। समय, निमिष, घड़ी आदि जो समय का माप है, वे सब कालद्रव्य की पर्याये हैं और उन व्यवहार पर्यायों का माप परद्रव्य की अपेक्षा से होता होने से उस व्यवहारकाल को पराधीन कहा जाता है। इसप्रकार उपर्युक्त सम्पूर्ण कथन से यह सिद्ध हुआ कि कालद्रव्य को समझने के लिए उसके दो भेद किए हैं। एक निश्चयकाल, जिसका लक्षण वर्तना है अर्थात् निश्चयकाल उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप प्रवर्तन करते हुए अन्य पाँचों द्रव्यों के प्रवर्तन या परिणमन में निमित्त होता है तथा दूसरा ह्र व्यवहारकाल जो माप की अपेक्षा परसापेक्ष होने से पराधीन है और उसके द्वारा लोक में काल/समय का व्यवहार चलता है।" इसप्रकार उपर्युक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि - वस्तुतः सभी द्रव्य पूर्ण स्वतंत्र, स्वाधीन है, परनिरपेक्ष ही हैं; परन्तु उन द्रव्यों का कथन पर-सापेक्ष होता है; अत: दोनों की अपेक्षाओं को समझ कर यथार्थ श्रद्धान करना चाहिए। ___कालद्रव्य किसी अन्य द्रव्य को बलात् परिणमन नहीं कराता; किन्तु जब द्रव्य स्वयं स्वाधीनता से परिणमन करता है तो कालद्रव्य उसमें निमित्त होता है। समय, निमिष, काष्ठा, घड़ी, मुहूर्त, अहोरात्र, मास, ऋजु, अमन और वर्ष - ये सब व्यवहार काल के भेद है। गाथा-२६ विगत गाथा में व्यवहारकाल के समय, निमिष आदि भेदों की चर्चा की। अब प्रस्तुत गाथा में व्यवहारनय से काल का कथन करते हैं ह्र मूलगाथा इसप्रकार है ह्र णत्थि चिरं वा खिप्पमत्तारहिदं तु सा वि खलु मत्ता। पोग्गलदव्वेण विणा तम्हा कालो पडुच्चभवो ॥२६।। (हरिगीत) विलम्ब अथवा शीघ्रता का ज्ञान होता माप से। माप होता पुद्गलाश्रित काल अन्याश्रित कहा||२६|| 'चिर' अथवा 'क्षिप्र' ऐसा ज्ञान काल के माप बिना नहीं होता और माप पुद्गल के आलम्बन बिना संभव नहीं है, अत: व्यवहारकाल पर के आश्रय से होता है ह्र ऐसा उपचार से कहा जाता है। ____ आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्र “प्रथम तो निमेष, समयादि व्यवहारकाल में चिर और क्षिप्र ऐसा ज्ञान होता है। वह ज्ञान वास्तव में अधिक और अल्पकाल के साथ सम्बन्ध रखने वाले काल परिणाम के बिना संभवित नहीं होता और वह परिमाण पुद्गल द्रव्य के परिणाम बिना निश्चित नहीं होता। इसप्रकार यद्यपि उपर्युक्त व्यवहार कालद्रव्य का कथन पुद्गलाश्रित होने से पराश्रित कहा जाता है; तथापि निश्चय से वस्तुतः वह कालद्रव्य अन्य के आश्रित नहीं है। इसलिए यद्यपि काल को अस्तिकायपने के अभाव के कारण द्रव्यों की सामान्य प्ररूपणा में कालद्रव्य का कथन नहीं है, तथापि जीव पुद्गल के परिणाम की अन्यथा अनुत्पत्ति द्वारा सिद्ध होनेवाला निश्चय काल और उनके आश्रित सिद्ध होने से व्यवहारकाल का अस्तित्व लोक में है ह्र अत्यंत तीक्ष्ण दृष्टि से ऐसा जाना जाता है।" (62) १.श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, नं. ११८, पृष्ठ ९५१, दिनांक १८-२-५२
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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