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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन उपर्युक्त व्यवहारकाल के माप के किए परद्रव्य का आलम्बन आवश्यक होने से इसे उपचार से पराश्रित कहा है। " आचार्य जयसेन की टीका में दो प्रश्नों के माध्यम से काल द्रव्य को स्पष्ट किया गया है ह्न प्रश्न- जो सूर्य की गति आदि क्रिया-विशेष से ज्ञात होता है, वही काल है, इससे भिन्न और कालद्रव्य क्या है ? १०४ उत्तर - ऐसा नहीं है, वस्तुतः बात यह है कि जो सूर्य की गति आदि से व्यक्त हुआ वह तो व्यवहार काल है और जो सूर्य की गति के परिणमन में सहकारी कारण है, वह निश्चय कालद्रव्य है। प्रश्न - सूर्य की गति आदि के परिणमन में तो धर्मद्रव्य सहकारी कारण या निमित्त है, गति के परिणमन में कालद्रव्य को कारण क्यों कहा ? उत्तर - सहकारी कारण अनेक भी हो सकते हैं, धर्मद्रव्य तो गति में हेतु होता ही है और गति के समय में कालद्रव्य में जो पर्यायरूप परिणमन होता है, उसमें निश्चय कालद्रव्य निमित्तकारण है। जैसे घट की उत्पत्ति में कुम्भकार, चक्र, चीवर आदि अनेक निमित्तकारण हैं, वैसे ही सूर्य के परिणमन में धर्मद्रव्य व कालद्रव्य को सहकारीकारण मानने में बाधा नहीं है । प्रश्न - 'समय' की परिभाषा में एक ओर बताया है कि ह्न एक पुद्गल परमाणु को निकटवर्ती आकाश प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक मन्दगति गमन में जितना काल लगता है, वह समय है और दूसरी ओर यह कहा है कि ह्न एक पुद्गल परमाणु की ऐसी सामर्थ्य है कि वह एक समय में चौदह राजू प्रमाण आकाश के प्रदेशों में गमन करता है । यह परस्पर विरुद्ध है। चौदह राजू के असंख्य प्रदेशों तक गमन करने में असंख्य समय लगना चाहिए? उत्तर ह्न एक समय के माप में एक पुद्गल परमाणु को एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक मंदगति से जाने की बात कही है और चौदह राजू जाना तीव्र या शीघ्रगति से गमन की अपेक्षा कहा है। (61) व्यवहारकाल का स्वरूप (गाथा १ से २६) १०५ कविवर हीरानन्दजी ने समय, निमिष, काष्ठा, कला, नाली (घड़ी) दिन-रात, मास, ऋतु, अयन को पद्य में इसप्रकार परिभाषित किया है ( सवैया इकतीसा ) परमानु उलटै की वरतना समै नाम, नैनपुटबीचि लसै नैमिस सुहाया है । तैसें ही विसेष संख्या काष्ठा कला नाली नाम, रवि के उदोतमान बासर कहाया है ॥ संध्यात प्रभात तांई रतिनाम दौनौ मिलै, अहोरात काल संख्या ग्रंथमैं जताया है । मास ऋतु अयन है वर्ष परसिद्ध एता, पर के निमित्तकाल बाहिर बहाया है ।। १५१ । । (दोहा) एकाकी कालानुकी, लखिय न परत लगार । तातैं पर संजोग करि, पराधीन विवहार । । १५२ । । प्रस्तुत छन्द १५१ का भावार्थ यह है कि ह्न समय मन्दगति से परिणत पुद्गल परमाणु अपने निकटवर्ती परमाणु तक पहुँचने में समय लगाता है। वह काल का सबसे छोटा काल समय है। निमिष आँख के पलक झपकने में जो समय लगे, वह निमिष है। एक निमिष असंख्यात समय का होता है। काष्ठा ह्र पन्द्रह निमिष की काष्ठा होती है। घड़ी ह्न बीस से कुछ अधिक कला की एक घड़ी होती है। मुहूर्त ह्र दो घड़ी का एक मुहूर्त बनता है। अहोरात्र यह सूर्य के गमन से जाना जाता है। एक अहोरात्र अर्थात् दिन-रात तीस मुहूर्त का एवं २४ घंटे का होता है। मास ह्र तीस अहोरात्र का एक मास होता है। ऋतु ह्र दो मास की ऋतु होती है।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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