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________________ १०८ १०९ पञ्चास्तिकाय परिशीलन तात्पर्य यह है कि यद्यपि व्यवहारकाल की उत्पत्ति और सिद्धि पुद्गलों के माप द्वारा होती है, अतः व्यवहारकाल को उपचार से पुद्गलादि के आश्रित कहा जाता है, किन्तु वस्तुत: कालद्रव्य भी अन्य अस्तिकाय द्रव्यों की भाँति पूर्ण स्वाश्रित है, स्वाधीन है। व्यवहारकाल भी कालद्रव्य की ही पर्याय है, पुद्गल की नहीं। आचार्य जयसेन इस गाथा की टीका में विशेष बात यह कहते हैं कि ह्र “यदि कोई कहे कि समय, निमिष आदि रूप ही परमार्थ कालद्रव्य है, इससे भिन्न कोई द्रव्यरूप कालाणु नहीं है; तो ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि सूक्ष्म कालरूप जो समय है, वह कालद्रव्य की ही पर्याय है, द्रव्य पर्याय के बिना नहीं होता तथा पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती और द्रव्य निश्चय से अविनश्वर है। काल पर्याय का उपादान कारणभूत कालाणु स्वयं कालद्रव्य है। इसप्रकार यद्यपि समय आदि सूक्ष्म व्यवहारकाल का और घड़ी आदि रूप स्थूल व्यवहारकाल का उपादान कारण निश्चय काल है। तथापि जो समय, घड़ी आदिरूप व्यवहारकाल की भेदकल्पना है, उससे भिन्न त्रिकाल स्थायी अनादि-निधन लोकाकाश के प्रदेशप्रमाण कालाणुरूप द्रव्य ही परमार्थ काल है। कविवर हीरानन्दजी ने उक्त कथन को निम्नांकित पद्य में इसप्रकार स्पष्ट किया है तू (दोहा) चिर-थोरा जो भेद है, मात्रारहित न जान । मात्रा पुग्गल बिन नहीं, काल प्रतीति बखान ।।१५३।। (सवैया इकतीसा ) लोकविवहारविर्षे चिर-सीघ्र भेदविषै, बिना परिमाण ताकौ भेद कैसे पाइए। व्यवहारनय से काल का कथन (गाथा १ से २६) पर की अपेच्छा विवहारकाल कहा ऐसा, निहचै अनन्यभाव स्यादवाद गाइए।। काय ताकै नाहीं कही अस्तिभाव सदा सही, द्रव्यनाम पावै तातै वस्तुरूप भाइए। पुद्गल-परिनाम ताकौ परिमाण करै तातें, ताको उद्योतकारी पुग्गल बताइए।।१५४।। अधिक या थोड़े का जो भेद है, वह माप के बिना नहीं होता तथा माप पुद्गल के बिना संभव नहीं है, इस कारण यद्यपि निश्चय काल में परिमाण अर्थात् मात्रा की आवश्यकता नहीं है; तथापि व्यवहार काल में घड़ी, घंटा निमिश आदि का कथन अपेक्षित होता है। निश्चय से वह कालद्रव्य से अनन्य है ह ऐसा स्याद्वाद से कथन है काल के अस्तित्व हैं, पर काय नहीं है। काल को बताने वाला पुद्गल द्रव्य है। अर्थात् काल का अस्तित्व पुद्गल से ज्ञात होता है। लोक व्यवहार के विलम्ब और शीघ्रता के माप हेतु परिमाण के बिना भेद कैसे किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता, इसीकारण व्यवहारकाल की उत्पत्ति पुद्गलाश्रित कही है। इस गाथा के प्रवचन में गुरुदेवश्री कानजी स्वामी कहते हैं कि ह्र "काल की मर्यादा (सीमा) के बिना थोड़ा काल-बहुत काल ह्र ऐसा कथन नहीं किया जा सकता; इसलिए काल की मर्यादा (सीमा) का कथन करना आवश्यक है तथा वह काल की मर्यादा (सीमा) पुद्गलद्रव्य के बिना नक्की नहीं होती। अर्थात् परमाणु की मंदगति, सूर्य की चाल इत्यादि प्रकार के जो पुद्गलद्रव्य का परिमाण है उससे काल की मर्यादा हो सकती है। इसलिए व्यवहार काल की उत्पत्ति पुद्गलद्रव्य के निमित्त से होती है ह्र ऐसा कहा जाता है। (63)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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