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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन उनमें पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं और कालद्रव्य अस्तिकाय नहीं है। ये पाँचों द्रव्य अपने स्वयं की स्वभावगत योग्यता से कायवान हैं, किसी परद्रव्य के कारण नहीं और कालद्रव्य भी अपनी स्वभावगत योग्यता से अनादि से कायवान नहीं है। ये छहों द्रव्य किसी के द्वारा निर्मित नहीं हैं, त्रिकाल अपने अस्तित्व से हैं। ये अपनी स्वभावगत योग्यता से ही स्वतः परिणमन करते हैं, कालद्रव्य निमित्तमात्र है। वह किसी को परिणमाता नहीं है, क्योंकि सभी द्रव्य अपने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वभाव से स्वयं परिणमनशील हैं, स्वयं परिणमते द्रव्यों को अन्य के सहयोग की आवश्यकता ही नहीं है। आगम में कालद्रव्य द्वारा जो सभी द्रव्यों को परिणमाने की बात कही, वह कथन निमित्त अपेक्षा है, वास्तविक नहीं; क्योंकि निमित्त तो परद्रव्य के परिणमाने में अकिचित्कर ही है। __इस गाथा में द्रव्यों को अकृत, अस्तित्वमय और लोक का कारणभूत कहा है। कारणभूत का अर्थ यह है कि जहाँ सभी द्रव्य हैं, वही तो लोक है। विश्व की परिभाषा में भी यही कहा है कि छह द्रव्यों के समूह को ही विश्व या लोक कहते हैं।” इसप्रकार इस गाथा में पंचास्तिकाय एवं कालद्रव्य के स्वरूप को बताकर यह कहा है कि कालद्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य बहु प्रदेशी होने से कायवान हैं तथा कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से वह कायवान नहीं हैं; ये सभी अकृत हैं, इन्हें ही सकल लोक का कारण कहा है। गाथा-२३ विगत गाथा में कहा है कि ह्न छह द्रव्यों में पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं। प्रस्तुत गाथा में कालद्रव्य का अस्तित्व सिद्ध करते हैं। सब्भावभावाणं जीवाणं तह य पोग्गलाणं च। परियट्टणसंभूदो कालो णियमेण पण्णत्तो ।।२३।। (हरिगीत) सत्तास्वभावी जीव पुद्गल द्रव्य के परिणमन से। है सिद्धि जिसकी काल वह कहा जिनवरदेव ने ||२३|| सत्ता स्वभाववाले जीवों और पुद्गलों के परिवर्तन से सिद्ध होनेवाले कालद्रव्य का सर्वज्ञों द्वारा नियम से उपदेश दिया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्र “यहाँ कालद्रव्य का कथन नहीं होने पर भी उसे अर्थपना (पदार्थपना) सिद्ध होता है। इस जगत में जीवों और पुद्गलों को सत्तास्वभाव के कारण प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की एकवृत्तिरूप परिणाम वर्तता है। वह परिणाम वास्तव में काल द्रव्य रूप सहकारी कारण के सद्भाव में ही दिखाई देता है। धर्म, अधर्म, आकाश के गति, स्थिति, अवगाह एवं परिणाम की भाँति । जिसप्रकार गति, स्थिति और अवगाहरूप परिणाम धर्म, अधर्म और आकाशरूप सहकारी कारणों के सद्भाव में होते हैं, उसीप्रकार उत्पाद-व्यय-धौव्य का एकतारूप परिणाम काल द्रव्य के सहकारी कारण के सद्भाव में होता है अर्थात् जीव और पुदगल के परिणमन में निमित्त कारण कालद्रव्य है।" टिप्पणी में कहा गया है कि - "वह कालद्रव्य जीव व पुद्गल के परिणाम की 'अन्यथा अनुपपत्ति' हेतु के द्वारा सिद्ध होता है। अन्यथा अनुपपत्ति' का अर्थ है कि जीव व पुद्गल का परिणमन अन्य किसीप्रकार (56) १.श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. ११६, पृष्ठ ९४१, दिनांक १६-२-५२
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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