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________________ गाथा-२२ विगत गाथा में कह आये हैं कि अपने गुण पर्यायों सहित जीव संसरन करता हुआ भाव, अभाव, भावाभाव और अभावभाव को करता है। प्रस्तुत गाथा में कहा है कि ह्न पाँच द्रव्य अकृत हैं, अस्तित्वमय हैं, अस्तिकाय हैं। जीवा पुग्गलकाया आयासं अस्थिकाइया सेसा। अमया अत्थित्तमया कारणभूदा हि लोगस्स ।।२२।। (हरिगीत) जीव-पुद्गल धरम-अधरम गगन अस्तिकाय सब । अस्तित्वमय हैं अकृत कारणभूत हैं इस लोक के||२२ ।। जीव, पुद्गलकाय, आकाश और शेष दो (धर्म एवं अधर्मद्रव्य) अस्तिकाय हैं, अकृत हैं, अस्तित्वमय हैं और वास्तव में लोक के कारणभूत हैं। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न यहाँ सामान्यतः जिनका स्वरूप कहा गया है, ऐसे छह द्रव्यों में से पाँच को अस्तिकायपना स्थापित किया गया है। वे अकृत होने से, अस्तित्वमय होने से तथा और अनेक प्रकार की अपनी परिणति रूप लोक के कारण होने से जो छहद्रव्य स्वीकृत हो गये हैं, उनमें जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म और अधर्म बहुप्रदेशी होने से अस्तिकाय हैं। कालद्रव्य के प्रदेश प्रचयात्मकता का अभाव है; अत: वह अस्तिकाय नहीं है। पाँच द्रव्य अकृत हैं, अस्तिकाय हैं (गाथा १ से २६) कवि हीरानन्दजी ने इस गाथा की व्याख्या इसप्रकार की है। (दोहा) जीवपुग्गलकास फुनि, अस्तिकाय का सेष । अकृत अस्तिकाय लोक कै, कारणरूप विसेष ।।१३६।। (सवैया इकतीसा) जीवकाय-पुग्गल औ धर्मा-धर्म-व्योम नाम, एई पाँचौं अस्तिकाय नीकैकै विचार हैं। किये न कराये काहु अपनेउ माहिं लसै, सत्तारूप सबहीमैं अस्तिता समारै हैं।। नानारूप लोककै हैं कारन सरूप सदा, परदेस पुंज तारौं कायरूप सारै हैं। काल काय बिना या इनमैं कहावै नाहिं, सबकै सरूप ग्यानी ग्यानमैं निहारै हैं ।।१३७ ।। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ह ये पाँचों अस्तिकाय हैं, इन्हें किसी ने किया नहीं है, कराया नहीं है। ये अपने स्वभाव से ही अनादि-अनन्त सत्स्वरूप हैं। ये पाँचों स्वभाव से ही अस्तिकाय हैं। यह जो नानारूप लोक दिखाई देता है, ये छहों द्रव्य ही इसके कारणरूप से विद्यमान हैं। ये पाँचों द्रव्य प्रदेशपुंज होने से कायवान हैं, काल के मात्र एकप्रदेश है, अत: वह कायवान नहीं है। आचार्य जयसेन पहले प्रश्न उठाते हैं कि यदि ये अकृत हैं, किसी पुरुष विशेष के द्वारा बनाये नहीं गये हैं तो इनकी रचना कैसे हुई ? बाद में स्वयं समाधान करते हैं कि ह्न वे स्वयं अपने अस्तित्व से, अपनी सत्ता से रचित हैं और लोक के कारणभूत हैं। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त सत् हैं, किसी के द्वारा खो नहीं गये। उपर्युक्त तीनों आचार्यों को आधार बनाते हुए गुरुदेवश्री कानजी स्वामी कहते हैं कि ह्र “सर्वज्ञ परमात्मा ने लोक में जो छह द्रव्य देखे हैं, (55)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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