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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन से नहीं हो सकता; इसलिए निश्चय काल अनुक्त होने पर भी अर्थात् यद्यपि कालद्रव्य का नामोल्लेख नहीं किया, तथापि वह द्रव्यरूप से विद्यमान है और निश्चयकाल के पर्यायरूप जो व्यवहारकाल है, वह पुद्गलों के परिणमन से जाना जाता है।" उक्त गाथा का स्पष्टीकरण करते हुये जयसेनाचार्य टीका में कहते हैं कि यद्यपि समय, घड़ी, घंटा आदि व्यवहारकाल अपने निमित्तभूत पुद्गल परमाणुओं के परिणमन द्वारा ज्ञात होते हैं, तथापि उस समय घड़ी आदि पर्यायरूप व्यवहारकाल का उपादानकारण कालाणु (कालद्रव्य) ही है। जिसप्रकार कुंभकार, चक्र, चीवर आदि बहिरंग निमित्त से उत्पन्न घटकार्य का पिण्डरूप मिट्टी उपादानकारण है तथा जिसप्रकार कर्मोदय के निमित्त से उत्पन्न मनुष्य, नारक आदि पर्यायरूप कार्य का उपादानकारण जीव है; उसीप्रकार घड़ी, घंटा एवं समय आदि व्यवहारकाल का उपादानकारण कालाणु (कालद्रव्य) है। इसी बात का कविवर हीरानन्दजी ने निम्नांकित छन्दों में इसप्रकार स्पष्टीकरण किया है, वे कहते हैं ह्न (दोहा) जीव विषै पुग्गल विषै, सत-सुभाव परिनाम । परिवर्तन कारन लसै, कालदरव अभिराम ।। (सवैया इकतीसा) जीव पुद्गल विषै अस्ति परिनाम विषै, उपजै विनासै ध्रौव्य धारावाही बगै है। तामैं जेती बार लगै तेता विवहार काल, याहीतैं निहचै काल अनू नाम लगै है।। पराधीन विवहार निहचै सुभावाधीन, अनू परिनाम लोकमान नीकै पगै है। लोक विवहार तीनौं काल जथाभेद सधै. जैनी जिनवानीमाहिं साचा भेद जगै है ।।१४३ ।। कालद्रव्य का अस्तित्व (गाथा १ से २६) (दोहा) वरनादिकगुनरहित जे, अगुरु-लघुक-गुनवंत । वरतनलच्छ अमूरती, काल दरव विगसंत ।। उक्त छन्दों में कवि कहते हैं कि जीवों एवं पुद्गलों में जो उत्पादव्यय-ध्रौव्यरूप परिवर्तन होता है उसमें कालद्रव्य ही निमित्त होता है। तथा काल द्रव्य का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि ह्न धारावाही उत्पादव्यय-ध्रौव्य में जो समय लगता है वही व्यवहार काल है और उसी से निश्चयकाल की सिद्धि होती है। व्यवहारकाल की सिद्धि धर्मादि व्ययों के निमित्त से होती है तथा अन्त में कहा है कि रूपादिरहित अगुरुलघुक गुणवान जो वर्तना लक्षण से जाना जाता है वह कालद्रव्य है। गुरुदेव श्री कानजीस्वामी प्रस्तुत गाथा २३ पर प्रवचन करते हुए कहते हैं कि - "भले ही कालद्रव्य को कायसंज्ञा नहीं कही जाती; तथापि वह द्रव्य अस्तित्वरूप वस्तु तो है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वभाव के धारक जीव व पुद्गलों के परिणमन से, उनकी नई से पुरानी अवस्था होने से उसमें निमित्तभूत निश्चय कालद्रव्य है ह्र ऐसा भगवान ने कहा है। वस्तु नई से पुरानी होती है, इससे कालद्रव्य है ह यह सिद्ध होता है। हाँ, जिसप्रकार पुद्गल परमाणु इकट्ठे होकर स्कन्ध होता है, वैसे कालाणु इकट्ठे नहीं होते, क्योंकि कालाणु में स्निग्ध-रुक्षता का गुण नहीं है। कालाणु रत्नों की राशि के समान सम्पूर्ण लोक में हैं और वे असंख्य हैं तथा प्रत्येक कालाणु एक स्वतंत्र द्रव्य है। जिसतरह धर्म, अधर्म व आकाशद्रव्य क्रमशः गति, स्थिति व अवगाहन में निमित्त है; उसीप्रकार कालद्रव्य परिणमन में निमित्त है। कालद्रव्य अनादि-अनन्त असंख्य हैं। कालद्रव्य के निमित्त बिना किसी द्रव्य का परिणमन नहीं होता। कालद्रव्य को पंचास्ति द्रव्यों द्वारा सिद्ध किया है। नयी और पुरानी पर्यायों से कालद्रव्य का माप निकलता है। (57)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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