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________________ ९० पञ्चास्तिकाय परिशीलन ऊपर जो चार बोल कहे ह्न उसका खुलासा इसप्रकार है ह्र १. देवपर्याय को प्राप्त होना 'भाव' का कर्तृत्व है। २. मनुष्य पर्याय का 'अभाव' होना अभाव का कर्तृत्व है। ३. विद्यमान देव पर्याय के नाश का आरंभ " भावाभाव" का कर्तृत्व है। तथा ४. अविद्यमान मनुष्य पर्याय के उत्पाद का आरंभ 'अभावभाव' का कर्तृत्व है। इसप्रकार हम देखते हैं कि आत्मा के देवपर्याय का 'भावरूप' कर्तृत्व है। मनुष्य पर्याय के अभाव कर्त्तापना है, परन्तु आत्मा का नाश नहीं होता । जब देव से मनुष्य की सन्मुखता करता है, उससमय भी देव का जो भाव है, उसका अभाव करता है, यह 'भावाभाव' का कर्तृत्व है और देवपर्याय के समय जो मनुष्य भाव नहीं है, उस भाव का कर्त्तापना 'अभावभाव' का कर्तृत्व है। ये चारों भाव पर्यायदृष्टि से हैं, द्रव्यदृष्टि से ये चारों भाव नहीं । यहाँ ज्ञातव्य है कि ये विकारी भाव या देवादि पर्यायें पर के कारण नहीं होती । आत्मा अपनी पर्याय का कर्ता स्वयं होता है, कर्म इनका कर्ता नहीं है, कर्म तो निमित्त मात्र हैं। सारांश यह है कि जीव को जिस गति में जाना है, उसके उस 'भाव' का कर्तृत्व है। जिस पर्याय (गति) का नाश होता है, जीव के उसके अभाव का कर्तृत्व है। जो भाव है, उसका अभाव करने की प्रारंभ दशा भावाभाव का कर्तृत्व है और जो भाव नहीं है उसका प्रारंभ होना अभावभाव का कर्तृत्व है। देवपर्याय और मनुष्यपर्याय को रचनेवाले देवगति नामकर्म और मनुष्यगति नामकर्म मात्र उतने काल जितने ही होते हैं। इसी विषय को बांस की पोरों का दृष्टान्त देकर स्पष्ट किया है। इसप्रकार पूर्वोक्त तीन गाथाओं में किए गए पर्यायर्थिकनय के व्याख्यान द्वारा मनुष्य-नारकादि रूप से उत्पाद - विनाशत्व घटित होता है; तथापि (54) ९१ जीवद्रव्य का उत्पाद स्वरूप परिणमन (गाथा १ से २६ ) द्रव्यार्थिकनय से सत् / विद्यमान जीव द्रव्य का विनाश और असत् / अविद्यमान जीव द्रव्य का उत्पाद नहीं है। गुरुदेवश्री कानजीस्वामी उक्त विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ह्न “मनुष्य पर्याय का व्यय होता है और देवपर्याय का उत्पाद होता है ' ह्न यह कथन कर्म के निमित्त से आत्मा में होनेवाली विभाव पर्याय की अपेक्षा से सत्य है। इससे यह सिद्ध हुआ कि ध्रुवपने की अपेक्षा से जो जीव मरता है, वही जीव उत्पन्न होता है और उत्पाद-व्यय की अपेक्षा से मरता मनुष्य है और उपजता देव है। पर्याय दृष्टि से भव बदल जाने पर सब संयोग बदल जाते हैं; इसलिए ऐसा कहने में आता है कि 'नया जीव उत्पन्न होता है।' वस्तुतः तो द्रव्य नया उत्पन्न नहीं होता । जीवद्रव्य त्रिकाली अविनाशी एक है, उसमें क्रमवर्ती बांस की पोरों की भाँति देव मनुष्यादि अनेक पर्यायें हैं। सभी भव एकसाथ नहीं होते, क्रम से ही होते हैं। उनमें जीवद्रव्य त्रिकाल रहता है, इसप्रकार आत्मा को अनेक भव की अपेक्षा अनेक भी कहा जाता है और अन्य अन्य पर्यायों की अपेक्षा अन्य अन्य भी कहा जाता है, परन्तु द्रव्य की अपेक्षा सत् का कभी विनाश नहीं होता और असत् का कभी उत्पाद नहीं होता । " आत्मा चिदानन्द एक रूप है। पुण्य-पाप रहित टंकोत्कीर्ण, ज्ञानानंदमूर्ति है। ऐसी अन्तदृष्टि से यह आत्मा त्रिकाल है, नया उतना नहीं होता ह्न यही इस गाथा का तात्पर्य है । १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, नं. ११६, पृष्ठ ९३८, दिनांक १५-२-५२
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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