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________________ गाथा - २१ विगत गाथा में कहा गया है कि ह्न ज्ञानावरणादि कर्म जीव से अनुबद्ध हैं; उनका अभाव करके जीव सिद्ध होते हैं। अब कहते हैं कि ह्न जीवद्रव्य द्रव्यार्थिकनय से नित्य होने पर भी पर्यायार्थिक नय से देव, मनुष्य आदि पर्यायों में संसरण करता है। मूलगाथा इसप्रकार हैं ह्र एवं भावमभावं भावाभावं अभावभावं च । गुणजएहिं सहिदो संसरमाणो कुणदि जीवो ॥ २१ ॥ (हरिगीत) भाव और अभाव भावाभाव अभावभाव में । यह जीव गुणपर्यय सहित संसरण करता इसतरह ॥ २१ ॥ यह जीव गुण पर्यायों सहित संसरण करता हुआ भावरूप, अभावरूप, भावाभावरूप और अभाव भावरूप परिणमन करता है। इस गाथा की टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि ह्र वस्तुतः आगम में द्रव्यार्थिकनय से द्रव्य को सर्वदा अविनष्ट और अनुत्पन्न कहा है, इसलिए जीवद्रव्य को द्रव्यरूप से नित्यपना कहा गया है । परन्तु यह जीव पर्यायार्थिकनय से (१) देवादि पर्याय रूप से उत्पन्न होता है, इसकारण उस जीवद्रव्य को ही भाव का अर्थात् उत्पाद का कर्तृत्व कहा गया है, (२) मनुष्यादि पर्यायरूप से मृत्यु (नाश) को प्राप्त होता है, अतः उसी जीव को अभाव का अर्थात् व्यय का कर्तृत्व कहा जाता है। (३) सत् अर्थात् विद्यमान देवादि पर्याय का नाश करता है, इसकारण उसी को भावाभाव का सत् के विनाश का कर्तृत्व कहा गया है और (४) असत् अर्थात् अविद्यमान मनुष्यादि पर्याय को उत्पन्न करता है, इसलिए उसी को अभाव भाव का अर्थात् असत् के उत्पाद का कर्तृत्व कहा गया है। (53) जीवद्रव्य का उत्पाद स्वरूप परिणमन ( गाथा १ से २६ ) ८९ से यह सब निर्दोष, निर्बाध, अविरुद्ध है; क्योंकि द्रव्य और पर्यायों में एक की गौणता से और अन्य की मुख्यता से कथन किया जाता है। आचार्य जयसेन ने इस गाथा की टीका में जो कहा, उसका अभिप्राय यह है कि द्रव्यार्थिकनय से नित्यता होने पर भी संसारी जीव के पर्यायार्थिक नय से देव, मनुष्य आदि के उत्पाद-व्यय के कर्तृत्व संबंधी व्याख्यान क मुख्यता से यह गाथा कही है। इसी बात को कवि हीरानन्दजी ने पद्य में लिखा है ह्र (सवैया इकतीसा ) दरवरूप देखतें उपजै न बिनसे है, जीव अविनासी नित्य ग्रंथनि मेँ भने है । देवपरजाय पावै भाव करता कहावै, नरभौ अभावतैं अभावरूप सनै है ।। देव सत्यरूप नासै भावाभाव करता है, आनभाव जानैतैं अभाव भाव चनै है । सब ठीक कहात स्याद्वादकै बखान विषै, जथाथान नीकै लसै श्रीजिनेस भनै है ।। १३३ ।। द्रव्यरूप से देखने पर वस्तु न उत्पन्न होती है और न विनष्ट होती है। जीव अविनाशी है, नित्य है । देव पर्याय के प्राप्त होने की अपेक्षा 'भाव' का कर्तृत्व कहा जाता है, नरभव के अभाव से 'अभाव' रूप कर्तृत्व कहा जाता है। सत् (विद्यमान) देवपर्याय का नाश करता है, इसलिए उसी को भावाभाव का (सत् के विनाश का) कर्तृत्व कहा गया है और असत्रूप मनुष्य पर्याय का उत्पाद करता है, इसलिए उसी को अभाव भाव का कर्तृत्व कहा गया है। जीवद्रव्य तो त्रिकाली एकरूप है; वह जीवद्रव्य द्रव्य से शुद्ध और पर्याय से अशुद्ध है। अशुद्ध पर्याय में प्रतिक्षण (१) भाव (२) अभाव (३) भावाभाव और (४) अभाव-भाव ह्न इन चार भावों का कर्तृत्व है।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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