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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन सम्यक्त्वरूप होता है; परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि एक समय में पूरा द्रव्य आ जाता है । इसप्रकार समझकर पर का लक्ष्य छोड़कर स्वसन्मुख झुके तो स्वभाव की दृष्टि होती है। जिसको धर्म करना हो उसको सर्वप्रथम आत्मा का स्वरूप समझना चाहिए । इसीलिए यहाँ आत्मा के तीन लक्षणों का वर्णन किया गया है। वस्तु सत् है अर्थात् सत् गुण है और वस्तु गुणी है। दूसरा लक्षण उत्पादव्यय - ध्रुव कहा था । सत्ता सामान्य लक्षण है और उत्पाद-व्यय-ध्रुव विशेष लक्षण है । द्रव्य का तीसरा लक्षण गुण पर्याय है । द्रव्यार्थिक नित्य दृष्टि की अपेक्षा द्रव्य नित्य है और पर्यायार्थिकनय से पलटने की अपेक्षा अनित्य है। इन दो नयों के पहलुओं से वस्तु की निर्बाध सिद्धि होती है। " ५४ इस गाथा में एक बात तो यह उभरकर आयी है कि ह्नद्रव्य व गुणों के पलटने का नाम ही पर्याय है, द्रव्य व गुण त्रिकाल स्थिर रहे हैं और पर्यायें पलटती हैं ह्र ऐसा नहीं है; क्योंकि द्रव्य व गुणों से पृथक् पर्याय नाम की कोई वस्तु ही नहीं है। गुरुदेव कहते हैं कि ह्न “द्रव्यदृष्टि से आत्मा ध्रुव है; इसलिए उसकी पर्याय अलग रह जाती है ह्र ऐसा नहीं है; परन्तु पर्यायदृष्टि से वही द्रव्य ध्रुव रहकर बदलता है। " दूसरी बात यह आई है कि यदि परद्रव्य के कारण द्रव्य की अवस्था को होना माने तो द्रव्य का प्रतिसमय पलटने के स्वभाव का ही नाश होने का प्रसंग प्राप्त होगा, जबकि प्रतिसमय पलटना तो वस्तु का स्वभाव है। हाँ, जब द्रव्य अपने स्व-चतुष्टय से स्वतः पलटता है तो उस काल कार्यकारण के अविनाभावी स्वभाव से पाँच समवाय भी स्वतः होते ही हैं। प्रस्तुत गाथा का मर्म यह है कि इस वस्तुव्यवस्था की सच्ची समझ और यथार्थ श्रद्धा से जीव पर के कर्तृत्व के भार से निर्भर होकर स्वत: ही स्वभाव सन्मुखता का पुरुषार्थ जाग्रत करके मोक्षमार्ग में अग्रसर होता है। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद पृष्ठ ८७७। दिनांक ६-२-५२ (36) गाथा १२ पिछली गाथा में कह आये हैं कि ह्न द्रव्य में उत्पत्ति व विनाश नहीं है, सद्भाव है। उसकी पर्यायें उत्पत्ति विनाश एवं ध्रुवता करती हैं। अब कहते हैं कि ह्न पर्यायों से रहित द्रव्य एवं द्रव्य बिना पर्यायें नहीं होती। दोनों अनन्य हैं। मूलगाथा इसप्रकार हैं ह्र पज्जयविजुदं दव्वं दव्वविजुत्ता य पज्जया णत्थि । दोहं अणण्णभूदं भावं समणा परूवेंति ।। १२ ।। (हरिगीत) पर्याय विरहित द्रव्य नहीं नहिं द्रव्य बिन पर्याय है। श्रमणजन यह कहें कि दोनों अनन्य अभिन्न हैं ।॥ १२ ॥ पर्यायों रहित द्रव्य और द्रव्य रहित पर्यायें नहीं होतीं। दोनों अनन्य हैं. अभिन्न हैं। आचार्य अमृतचन्द्रदेव टीका में कहते हैं कि ह्न “यहाँ द्रव्य और पर्यायों का अभेद दर्शाया है। जिसप्रकार दूध, दही, मक्खन, घी आदि से रहित गोरस नहीं होता, उसीप्रकार पर्यायों से रहित द्रव्य नहीं होता तथा जिसप्रकार गोरस से रहित दूध, दही, मक्खन, घी नहीं होते, उसी प्रकार द्रव्य से रहित पर्यायें नहीं होतीं । इसलिए यद्यपि द्रव्य और पर्यायों का कथनवश कथंचित भेद है; तथापि वे एक अस्तित्व में होने के कारण अन्योन्य वृत्ति नहीं छोड़ते, एक-दूसरे का आश्रय नहीं छोड़ते अर्थात् परस्पर कार्य-कारण संबंध से भी एकत्व ही बना रहता है। इसलिए वस्तुरूप से उनका अभेद है।" इसी भाव को कविवर हीरानन्द ने इसप्रकार लिखा है ह्र
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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