SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन द्रव्यार्थिकनय से द्रव्य के उत्पाद-व्यय नहीं है, वह तो सदैव सत् भावरूप से ही रहता है। उत्पाद-व्यय-ध्रुव तो पर्यायार्थिकनय से कहे हैं।" इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं कि ह्न (दोहा) व्यय उत्पाद न दरवकै, लसत सदा सद्भाव । व्यय उत्पाद ध्रुवत्ताविधि, पर्ययदृष्टि लखाव।।८१।। __(सवैया इकतीसा) गुन और परजाय दौनौं अस्तिरूप जामै, तीन काल एक सोई द्रव्य नाम कहिए। क्रमभावी-पर्जय सो उपजै विनास होई, सहभावी ध्रौव्यरूप परजाय लहिए।। दरव परजायमैं वस्तुरूप बसै सदा, तातें नयकौ विलास तिहूँ काल चहिए। दरव परजायकै अर्थ नय भेद त्यागि, मध्यपाती जीव के अभेद अंग गहिए ।।८१।। द्रव्य का उत्पाद व विनाश नहीं होता; द्रव्य का सदा सद्भाव ही रहता है। उत्पाद-व्यय एवं ध्रुवता ह्र ये तीनों पर्यायदृष्टि कहे जाते हैं। हाँ, द्रव्य की पर्यायें उत्पाद विनाश एवं ध्रुवता को धारण करती हैं। जिसमें गुण व पर्यायें दोनों अस्तिरूप से हैं। ये जो तीनों कालों में एक रूप रहती हैं, वह द्रव्य है तथा इनका जो क्रम से उपजना व विनशना एवं ध्रुवरूप रहना है, वे सब गुण पर्यायों के भेद हैं। उक्त द्रव्य व पर्यायों में वस्तुस्वरूप सदा एकरूप रहता है, इसलिए तीनों कालों में नयों की सापेक्षता होती है। मूलवस्तु के अनुभव में द्रव्यपर्याय के नय भेदों को त्याग कर जीव अपने अभेदरूप को प्राप्त होता है। गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र अनादिनिधन त्रिकाल षड्द्रव्य (गाथा १ से २६) अविनाशी गुण पर्यायस्वरूप द्रव्य का उत्पाद एवं विनाश नहीं होता । द्रव्य का स्वरूप सत्ता मात्र है। वह सत्तामात्र द्रव्य नित्य-अनित्य परिणाम रूप से उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप परिणमता है। किसी द्रव्य का चाहे वह आत्मा हो या परमाणु किसी का भी नाश नहीं होता । द्रव्य अनादि-अनंत है। अविनाशी है। उस द्रव्य का अस्तित्व मात्र स्वरूप है । उसका नित्यपना ध्रुव है तथा अनित्यपना उत्पाद-व्ययरूप है । वह उत्पाद-व्यय पर के कारण नहीं होता। ___भावार्थ यह है कि ह्र अनादि अनंत अविनाशी टंकोत्कीर्ण गुणपर्याय रूप (अपेक्षा से) अविनाशी है और किसी परिणाम (अपेक्षा) से विनाशीक है। इस कारण से यह बात सिद्ध होती है कि द्रव्यार्थिकनय से तो द्रव्य ध्रुव स्वरूप है और पर्यायार्थिकनय से उत्पत्तिविनाशरूप है। ___ छहों द्रव्यों में गुण और पर्यायें हैं, उनमें त्रिकाल सहवर्ती परिणाम गुण और प्रतिसमय होनेवाली उत्पाद-व्यय पर्यायें हैं। अतः यह बात सिद्ध हुई कि प्रत्येक द्रव्य कायम रहने की अपेक्षा से नित्य है तथा पर्याय दृष्टि से अनित्य और नाशवान है। ____ यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि ह्र द्रव्यदृष्टि से आत्मा ध्रुव है इसलिए उसकी पर्याय अलग रह जाती हो ह्र ऐसा नहीं है; परन्तु पर्याय दृष्टि से वही द्रव्य ध्रुव रहकर बदलता है। जैसे हाथ चक्की का निचला पाट स्थिर रहता है और ऊपर का पाट फिरता है, घूमता है, इसीप्रकार गुण त्रिकाल स्थिर रहते हैं और पर्यायें बदलती हैं। नित्यता का संबंध रखे बिना अनित्यता भिन्न ही रहती है ह्र ऐसा नहीं है। द्रव्यार्थिकनय से नित्य होने पर भी पर्यायार्थिकनय से वही द्रव्य अनित्यरूप होता है। ___ पूर्व पर्याय के व्यय और नई पर्याय के उत्पाद की अपेक्षा से विसदृशपना है और ध्रुवपने की अपेक्षा से सदृशतापना है। जैसे कुण्डल, कड़ा आदि अवस्थाएँ स्वर्ण से अत्यन्त पृथक् नहीं होती हैं। सुवर्ण ही पीलापन, चिकनापन आदि धुवरूप रहकर कुण्डल, कड़ा इत्यादि पर्याय रूप होता है। इसीप्रकार आत्मद्रव्य सदृश रूप रहकर मिथ्यात्व (35)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy