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________________ ५६ पञ्चास्तिकाय परिशीलन ( दोहा ) परजय - विजुद न दरव है, दरव बिन न परजाय । अजुतरूप दोनों लसै, कहत सिरी जिनराय ।। ८५ ।। ( सवैया ) दूध दही घीव छाँछि बिना ज्यौं गोरस नाहिं । तैसें परजाय बिना द्रव्यकौं न गावैं हैं । गोरस बिना ज्यौं दूध दही घीव छाछि नाहिं । द्रव्य बिना तैसें परजाय न कहावै है । तातैं द्रव्य परजाय कहने मैं भेद सधै । वस्तुतैं सरूप एक भेद नाहीं भावै है ।। स्याद्वादवादी है कै द्रव्य परजाय जानै । केवल सरूप भायै मोखरूप पावै है ||८६ ॥ (दोहा) दरव और परजाय मैं, कथनमात्र करि भेद । अस्तिरूप परदेस करि, वस्तु सदा निरभेद ।। ८७ ।। पर्याय से रहित द्रव्य नहीं होता तथा द्रव्य से रहित पर्याय नहीं होती। यद्यपि कथन में भेद से कहा जाता है, तथापि वस्तु स्वरूप अभेद है, एक है। स्याद्वादी इस बात को भलीभाँति जानते हैं। ऐसा वस्तुस्वरूप समझने वाले मोक्षप्राप्त करते हैं। जिसतरह दूध-दही छाछ और घी के सिवाय गोरस और कुछ नहीं है; उसीतरह पर्यायों के बिना द्रव्य नहीं होता तथा गोरस के बिना और दूध, दही, छाछ एवं घी नहीं होता; वैसा ही द्रव्य के बिना पर्यायें नहीं होती; इसलिए यह सिद्ध है कि द्रव्य पर्याय के कहने से भेद सिद्ध होता तथा मूलतः वस्तु अभेद है। इसी बात को गुरुदेवश्री कानजीस्वामी ने अनेक उदाहरणों से पंचास्तिकाय प्रवचन में जो खुलासा किया है, उसका संक्षेप सार यह है ह्र (37) द्रव्य पर्याय की अनन्यता (गाथा १ से २६) “द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय से वस्तु में भेद होने पर भी वस्तुतः अभेद है। प्रत्येक वस्तु का ऐसा स्वतंत्र स्वरूप है कि प्रतिक्षण पर्याय बदलती है और मूलवस्तु ज्यों की त्यों कायम रहती है। वस्तु का स्वरूप ऐसे दो भेदवाला होने पर भी वस्तु अभेद है। देखो, यह पंचास्तिकाय का अधिकार है। यदि पदार्थ पर के कारण हो तब तो पाँच का अस्तिपना ही नहीं ठहरता तथा पदार्थ का अस्तिपना है और उसके दो अंश हैं। एक त्रिकाल अंश और दूसरा वर्तमान अंश हैं ह्न द्रव्य स्वयं से है, इस अपेक्षा द्रव्य और पर्याय की एकता है। ऐसा होने पर भी कथन की अपेक्षा समझाने के लिए भेद किया जाता है; परन्तु वस्तु के स्वरूप का विचार करने पर भेद नहीं है। संज्ञा, संख्या, लक्षणादि से भेद होने पर भी वस्तु में भेद नहीं है। यदि कोई ऐसा माने कि अवस्था का परिवर्तन संसारदशा में होता है, सिद्धदशा में नहीं तो द्रव्य सिद्धदशा में पर्याय रहित ठहरता है; परन्तु वहाँ भी द्रव्य पर्यायरहित नहीं रहता; क्योंकि पर्याय और द्रव्य का परस्पर एक अस्तित्व है तथा सिद्धदशा स्वयं जीव की निर्मल पर्याय है। यहाँ आत्मा और परमाणु आदि समस्त द्रव्यों की बात है। एक आत्मा दूसरे आत्मा के कारण नहीं है, एक पुद्गल दूसरे पुद्गल के कारण नहीं है, प्रत्येक का अस्तित्व पृथक्-पृथक् है । प्रत्येक के अस्तित्व में एक द्रव्य तथा दूसरा पर्याय अंश है ह्र इसप्रकार दो अंश हैं, वे दोनों अंश अभिन्न हैं। " ५७ सार यह है कि सम्यग्ज्ञान नेत्र से देखने पर वस्तु मूलत: निर्भेद है। जैसे कि कुण्डल-कड़े आदि पर्यायों के भेद होने पर भी स्वर्ण दोनों में एक ही होता है। जो स्याद्वादीजन ऐसे वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझ कर श्रद्धा करते हैं, वे वस्तु स्वातंत्र्य के सिद्धान्त को समझकर समताभावपूर्वक स्वरूप में स्थिर होकर शीघ्र निर्वाणपद को प्राप्त करते हैं। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद पृष्ठ ८७९, दिनांक ५-२-५२
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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