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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन वस्तु को सिद्ध करने के लिए द्रव्य गुण-पर्यायों के भेद से कथन किया है, परन्तु वस्तुतः द्रव्य से उसके गुण-पर्याय सर्वथा भिन्न नहीं हैं। तथा सर्वथा अभिन्न भी नहीं है। यदि सर्वथा अभिन्न हों तो मात्र एक पर्याय जितना अथवा एक गुण जितना ही द्रव्य हो जायेगा । साथ ही 'यह द्रव्य और यह गुण' ऐसा भेद करके कथन भी नहीं हो सकेगा। अतः स्पष्ट है कि गुण-गुणी में कथंचित् भेद है, सर्वथा नहीं । वस्तु को समझाने के लिए गुण-पर्याय का भेद करके कथन किया है, लेकिन वस्तु तो अभेद है। इसप्रकार वस्तु कथंचित् भेदाभेदरूप कहा है। ३२ काया का तात्पर्य इस स्थूल पौद्गलिक शरीर से नहीं है, बल्कि प्रत्येक वस्तु के अनेक प्रदेशों का जो पिण्ड है, वही उसकी काया है। यह शरीर आत्मा की काया नहीं है, वह तो पुद्गल की काया है। आत्मा के असंख्यात चैतन्य प्रदेश ही आत्मा की काया है। जड़काया आत्मा की नहीं है, वह तो पुद्गलास्तिकाय है । उसमें आत्मा का अस्तित्व नहीं है। इसलिए जो ऐसा मानता है, जड़ शरीर को आत्मा चलाता है। ह्न वह जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय को भिन्न-भिन्न नहीं जानता । काल को छोड़कर शेष पाँचों द्रव्यों की काया होती है, काया अर्थात् प्रदेशों का समूह, प्रदेश के सूक्ष्म अविभागी अंश हैं, उन्हें सर्वज्ञ के सिवाय कोई दूसरा जान नहीं सकता है। जीव के जो असंख्य प्रदेश कहे हैं, वे अंशकल्पना से कहे हैं। जिसप्रकार जीव के प्रदेश कभी भिन्न-भिन्न नहीं होते हैं; उसीप्रकार धर्म, अधर्म और आकाश के अंश भी भिन्न-भिन्न नहीं होते हैं । पुद्गल का स्कंध होता है। और भिन्न-भिन्न होकर उसके अणु भी हो जाते हैं; इसलिए पुद्गल का कायपना उपचार से कहा है। एक द्रव्य में जो अनेक प्रदेशों की अंशकल्पना है, उसे भी पर्याय कहते हैं। अखण्ड क्षेत्र के अंश हुए इसलिए वह भी पर्याय है। एक प्रदेश अन्य प्रदेशरूप नहीं है। यदि ऐसा न हो तो एक प्रदेश दूसरे प्रदेशरूप (25) षद्रव्य पंचास्तिकाय ( गाथा १ से २६ ) ३३ हो जायेगा और वस्तु के अनेक प्रदेश ही सिद्ध नहीं हो सकेंगे। आत्मा के असंख्यात प्रदेश अनादि अनंत हैं। उसका कोई भी प्रदेश दूसरे प्रदेशरूप कभी भी नहीं होता है। जैसे श्रद्धा ज्ञानादि भाव अर्थात् गुणों की पर्याये हैं; उसीप्रकार क्षेत्र की भी पर्यायें हैं। सभी द्रव्यों का अपने स्वरूप से एकत्व है। जैसे गुणपर्यायों के कथंचित् भिन्न होने पर भी उनसे वस्तु भिन्न नहीं है; उसी प्रकार क्षेत्र के अंशकल्पना से भेद करने पर भी वस्तु में भेद नहीं होता है। यद्यपि जीव, धर्मास्ति, अधर्मास्ति और आकाश अखंड अमूर्तिक द्रव्य हैं, परन्तु उनमें भी अंश कल्पना हो सकती है। जैसे आकाश एक अखंड अमूर्तिक द्रव्य होते हुए भी उसमें 'यह घटाकाश है और पटाका है' ह्र ऐसे विभाग होते हैं। अथवा दो उंगलियाँ हैं, उनमें उन दोनों का क्षेत्र भिन्न-भिन्न हैं। जो एक उंगली का क्षेत्र है वह दूसरी उंगली का नहीं है ह्र ऐसा कह सकते हैं। यदि आकाश में अशंकल्पना हो ही नहीं सकती तो दो उंगलियों का क्षेत्र भिन्न-भिन्न कैसे कह सकते हैं। इसप्रकार कालद्रव्य के अतिरिक्त पाँचों द्रव्यों का अस्तिकायपना है। इन पाँच द्रव्यों के उत्पाद-व्यय-ध्रुवता से तीन लोक की रचना है। काल सहित इन पाँच द्रव्यों के अतिरिक्त जगत कोई अलग नहीं है । इन छह द्रव्यों का समूह ही जगत है। जगत के पदार्थों में उत्पाद-व्यय-ध्रुव ह्न सब अपने-अपने कारणों से हो रहे हैं, उसमें हर्ष-विषाद का क्या काम ? ऐसा राग-द्वेष रहित ज्ञाता रहना ही पंचास्तिकाय के स्वतंत्र परिणमन के जानने का फल है। जो पाँच अस्तिकाय हैं, उनसे तीन लोक की रचना है। उनमें आकाश, धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय तो ऊर्ध्व-मध्य-अधोह्र तीनों लोकों में प्रतिक्षण परिणमन कर रहे हैं और अखंडपने संपूर्ण लोक में व्याप्त हैं। आकाश तो अलोकाकाश में भी व्यापक है, लेकिन यहाँ लोक का वर्णन करना है अतः यहाँ आकाश को लोकव्यापक कहा है।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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