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________________ ३० पञ्चास्तिकाय परिशीलन हैं। आत्मा की पर्याय शरीर अथवा कर्म के कारण नहीं होती और कर्म तथा शरीर की अवस्था आत्मा के कारण नहीं होती। इसप्रकार प्रत्येक अस्तिकाय स्वयं के गुण-पर्यायों सहित अस्तित्ववाला है। जो पदार्थ हैं, उनका कभी सर्वथा नाश नहीं होता है और जो नहीं है उनकी नवीन उत्पत्ति नहीं होती। पदार्थ स्वयं अपने ही कारण ध्रुव रह हैं और अपने कारण ही परिणमन करते हैं, पर के कारण नहीं । आत्मा सदा एक रूप ही रहे, परिणमन न करे तो दुःख को नष्ट करके सुख प्रगट करना अशक्य होगा। यदि आत्मा सर्वथा परिणमनशील ही हो और ध्रुव न हो तो दुःख को नष्ट करके सुख का अनुभव करनेवाला ही नहीं रहेगा, उस स्थिति में सुख का अनुभव भी नहीं होगा। अतः आत्मा तथा प्रत्येक द्रव्य ध्रुवरूप रहकर ही परिणमन करते हैं। आत्मा में त्रिकाली शक्तियाँ हैं और उनकी एक के बाद एक पर्यायें होती हैं। उनका कर्ता आत्मा स्वयं है। जो स्वतंत्ररूप से कार्य करता है, वही कर्ता है। आत्मा की अवस्था में जड़ का अधिकार नहीं है और जड़ की अवस्था में आत्मा का अधिकार नहीं है। प्रत्येक द्रव्य में दो प्रकार की शक्तियाँ हैं - एक त्रिकालीशक्ति और दूसरी वर्तमान अवस्थारूप शक्ति । इसप्रकार प्रत्येक द्रव्य की पर्याय उसका स्वभाव है। स्वभाव का कभी नाश नहीं होता और जिसका अस्तित्व नहीं है, वह नया उत्पन्न नहीं होता। जड़ और आत्मा मिलकर पूरा जगत है। जगत कोई भिन्न वस्तु नहीं है। पदार्थ जगत में न हों ह्र ऐसा नहीं हो सकता। उसीप्रकार जगत का सर्वथा प्रलय हो जाये ह्र ऐसा भी नहीं हो सकता। जगत पहले नहीं था और फिर नया बना ह्न ऐसा भी नहीं है । तात्पर्य यह है कि आत्मा के गुण-पर्याय आत्मा से अभेद हैं तथा जड़ के गुण- पर्याय जड़ से अभेद हैं। प्रत्येक वस्तु स्वरूप से है तथा पररूप से नहीं है ह्र ऐसा वस्तु का स्वभाव है। वस्तु में द्रव्य, गुण, पर्याय का एवं संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन आदि का भेद है, परंतु क्षेत्र भेद नहीं है। शरीर का रूपान्तर, क्षेत्रान्तर परमाणु के कारण होता है, आत्मा के कारण नहीं। ज्ञानी तो पर का (24) षद्रव्य पंचास्तिकाय ( गाथा १ से २६ ) ३१ अकर्ता है ही; परन्तु पर के कर्तृत्व का अहंकार करनेवाला अज्ञानी जीव भी पर का कुछ नहीं कर सकता। यदि आत्मा शरीर का कार्य करे तो आत्मा और शरीर दोनों मिलकर एक हो जायें, आत्मा को जड़ शरीर होना पड़े; क्योंकि यः परिणमति स कर्ता के सिद्धान्तानुसार शरीर के कर्ता को शरीररूप होना ही होगा; अन्यथा वह कर्ता नहीं हो सकेगा । परमाणु का कार्य परमाणु के कारण और आत्मा का कार्य आत्मा के कारण होता है । द्रव्य की प्रत्येक पर्याय भी अपनी शक्तियों तथा अवस्थाओं से अभेद हैं तथा अन्य से भिन्न है। जीव की इच्छा होने पर भी कई बार बोल नहीं पाता । पक्षाघात के समय इच्छा होने पर भी शरीर नहीं चलता; क्योंकि इच्छा और शरीर दोनों भिन्न-भिन्न हैं। जीव के कारण जड़ की अवस्था नहीं होती है, आत्मा का काम तो जानना देखना है। अज्ञानी जीव माने या न माने, परन्तु वस्तुस्वरूप तो जैसा है वैसा ही है। प्रत्येक वस्तु अपने गुण - पर्यायों से अभिन्न है तथा पर से भिन्न है। जिसतरह आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि शक्तियाँ हैं तथा उनकी वर्तमान अवस्था हीनाधिक होती रहती है। उसीप्रकार परमाणु की भी स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि शक्तियों की अवस्था पलटती रहती है। इसप्रकार गुणों के कायम रहते हुए अवस्था का पलटना द्रव्य का स्वरूप है। जैसे कि कुण्डल का व्यय होता है, कड़े का उत्पाद होता है और सोना चिकनाहट, वजन आदि शक्तिरूप से ध्रुव रहते हैं । सर्वज्ञ भगवान ने जो छह पदार्थ देखे हैं, वे छहों अस्तिरूप हैं और उनमें से पाँच अस्तिकायरूप हैं। ये सभी द्रव्य अपने-अपने गुण-पर्यायों टिके हुए हैं, किसी भी द्रव्य के गुण-पर्यायों का किसी अन्य द्रव्य के साथ कोई संबंध नहीं है। पदार्थों का अस्तित्व स्वभाव है और वह उत्पादव्यय ध्रुवता सहित है । गुण शाश्वत ध्रुव है और पर्यायें क्षणिक उत्पाद-व्ययरूप है। ऐसा उत्पाद - व्यय-ध्रुवरूप वस्तु का अस्तित्व है। किसी अन्य की सहायता से किसी पर्याय का उत्पाद नहीं होता। वस्तु स्वयं अपनी सामर्थ्य से नयी-नयी पर्यायरूप उत्पन्न होती है।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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