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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन जीव के असंख्यप्रदेश हैं, यही जीव का कायपना है। केवली समुद्घात के समय जीव तीनलोक में व्याप्त होता है; इसकारण भी जीव में अंशकल्पना संभव है। इसप्रकार ये पाँच अस्तिकाय स्वयंसिद्ध है, उनके उत्पाद-व्यय-ध्रुव स्वरूप ही यह लोक है। संसारी जीव का जो संकोच-विस्तार होता है, वह उसके असंख्यप्रदेशी अस्तिकाय के परिणमन की योग्यता से ही होता है। नामकर्म के कारण आत्मा में संकोच-विस्तार नहीं होता। सिद्धदशा में आत्मा में वैसी संकोच-विस्तार की योग्यता नहीं है, इसलिए वहाँ संकोच-विस्तार नहीं होता। आत्मा में जो भी विकार होता है, वह अपने अस्तिकाय का परिणमन है; कर्म के कारण नहीं।" इसप्रकार इस गाथा में द्रव्यों के अस्तित्व व कायत्व को सिद्ध करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जिन्हें विविध गुणों के विस्तार क्रम के तथा पर्यायों के प्रवाह के अंशों के साथ अपनत्व है, वे अस्तिकाय हैं तथा उन्हीं से तीन लोक निष्पन्न हैं। गाथा ६ विगत गाथा में पाँच द्रव्यों के अस्तित्व और कायत्व की सिद्धि की है। तथा पंचास्तिकायों से त्रिलोक निष्पन्न है ह्र ऐसा कहा है। अब इस गाथा में कालद्रव्य से सहित छह द्रव्य कहे हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है तेचेव अस्थिकाया तेक्कालियभावपरिणदा णिच्चा। गच्छंति दवियभावं परियट्टणलिंगसंजुत्ता ।।६।। (हरिगीत) त्रिकालभावी परिणमित होते हुए भी नित्य जो। वे पंच अस्तिकाय वर्तनलिंग सह षट् द्रव्य हैं।।६।। जो तीन काल के भावों रूप परिणमित होते हैं तथा नित्य हैं, वे पंच अस्तिकाय कालद्रव्य सहित छहों द्रव्य हैं। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ह्र “यहाँ पाँच अस्तिकायों को और काल को द्रव्यपना कहा है। द्रव्य वास्तव में सहभावी गुणों तथा क्रमभावी पर्यायों को अनन्यरूप से आधारभूत हैं। इसलिए जो वर्त चुके हैं. वर्त रहे हैं और भविष्य में वर्तेगे उन भावों या पर्यायोंरूप परिणमित होने के कारण पाँच अस्तिकाय और काल ह ये छहों द्रव्य हैं। ___ भूत-वर्तमान और भावी भावों स्वरूप परिणमित होने से उन्हें अनित्य नहीं कह सकते; क्योंकि भूत, वर्तमान और भावी भावरूप अवस्थाओं में भी प्रतिनियत अर्थात् अपने-अपने निश्चितस्वरूप को नहीं छोड़ते, इसलिए वे नित्य ही हैं। ___ कालद्रव्य पुद्गलादि के परिवर्तन का हेतु होने से तथा पुद्गलादि के परिवर्तन द्वारा उसकी पर्यायें ज्ञात होती हैं, इसलिए कालद्रव्य को अस्तिकायों में अन्तभाव करने के लिए उसे परिवर्तन लिंग विशेषण नाम दिया है।" यों समताश्री अपने बेटे-बहू को भी, बेटे-बहू की दृष्टि से कम और आत्मार्थी के नजरिया से अधिक देखती हैं। अतः उनके लक्ष्य से प्रवचन करने पर भी अन्य सभी श्रोता हर्षित ही होते हैं। विराग की पैनी बुद्धि से उद्भूत शंकाओं के समाधानों से सभी लोग लाभान्वित भी बहुत होते हैं। “वस्तु स्वातंत्र्य के परिप्रेक्ष्य में अहिंसा की स्थिति कैसे संभव है?" इस प्रश्न के समाधान के लिए विराग और चेतना आतुर हैं। वे सही-सही समाधान पाने के प्रति पूर्ण आश्वस्त हैं। उन्हें विश्वास है कि आज उनकी बहुत दिनों से उलझी पहेली सुलझेगी, उन्हें उनकी शंकाओं का समाधान मिल ही जायेगा। - नींव का पत्थर, पृष्ठ-४२ (26) १.श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद सन् ५२ फरवरी के प्रवचन से।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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