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________________ गाथा ४ विगत गाथा में पंचास्तिकाय को ही समय कहा है। अब इस गाथा में पंचास्तिकाय के भेदों का कथन करते हैं। मूलगाथा इस प्रकार है - जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आगासं। अत्थित्तम्हि य णियदा अणण्णमइया अणुमहंता ।।४।। (हरिगीत) आकाश पुद्गल जीव धर्म अधर्म ये सब काय हैं। ये हैं नियत अस्तित्वमय अरु अणुमहान अनन्य हैं।।४।। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा आकाश अस्तित्व में नियत, अस्तित्व से अनन्यमय और अणु महान हैं। इस गाथा की टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने जो कहा है, उसका भाव इसप्रकार है ह्र “यहाँ पाँच अस्तिकायों की जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ह्र ये पाँचों विशेष संज्ञाएँ अर्थ का अनुसरण करती हुई सार्थक हैं। ये उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमयी सामान्यविशेषसत्ता में नियतव्यवस्थित-विद्यमान होने से इनके सामान्य-विशेष अस्तित्व भी हैं। वे द्रव्य अस्तित्व में नियत होने से अपने से सत् होने के कारण अस्तित्व से अग्नि एवं उष्णता की भाँति अनन्यमय है; बर्तन में रखे घी की भाँति अन्य नहीं हैं। यहाँ ज्ञातव्य है कि यह अस्तित्व में नियतपना नयप्रयोग से है। आगम में दो नय कहे हैं ह्र द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । वहाँ कथन एक नय के आधीन नहीं होता, किन्तु दोनों नयों के आधीन होता है। इसलिए पंचास्तिकाय : भेद-प्रभेद (गाथा १ से २६) वे पर्यायार्थिक नय से तो अपने से कथंचित् भिन्न हैं; परन्तु अस्तित्व में व्यवस्थित होने से और द्रव्यार्थिक कथन से स्वयमेव सत् (विद्यमान) होने के कारण अस्तित्व से अनन्यमय ही है। उनके कायपना भी है; क्योंकि वे अणुमहान हैं। यहाँ अणु अर्थात् प्रदेश के छोटे से छोटा निर्विभागीय अंश अणु है तथा उन अनेक अंशों से निर्मित अनेक प्रदेशी स्कन्ध को महान कहा है ह्र ऐसे अणु-महान प्रदेशों द्वारा निर्मित उपर्युक्त पाँचों द्रव्यों के कायत्व है। जो दो अणुओं द्वारा महान हो, बड़ा हो वह भी अणुमहान है ह्र ऐसी व्युत्पत्ति से द्विअणुक पुद्गल स्कन्धों को भी कायत्व है। परमाणु के व्यक्तिरूप से एकप्रदेशी तथा शक्तिरूप से अनेकप्रदेशी होने के कारण कायत्व सिद्ध होता है। कालाणुओं को व्यक्ति अपेक्षा तथा शक्ति अपेक्षा से प्रदेश प्रचयात्मक महानपने का अभाव होने से यद्यपि वे अस्तित्व में नियत हैं, तथापि उनके अकायत्व है ह ऐसा इस कथन से ही सिद्ध हुआ; इसीलिए यद्यपि वे सत्-विद्यमान हैं; तथापि उन्हें अस्तिकाय के प्रकरण में नहीं लिया है।" ___ पाण्डे हेमराजजी ने उपर्युक्त कथन को स्पष्ट करते हुए कहा है कि ह्र "यह पाँचों द्रव्य पर्यायार्थिकनय से अपने गुण-गुणी भेद से कथंचित् भिन्न अस्तित्व में विद्यमान हैं और द्रव्यार्थिकनय से अपने-अपने अस्तित्व से अनन्य हैं, अभिन्न हैं। ये पाँचों द्रव्य कायत्ववाले हैं; क्योंकि वे अणुमहान हैं। अणुमहान की व्युत्पत्ति तीन प्रकार से है : (१) अणुभिः महान्त: अणुमहान्त: अर्थात् जो बहुप्रदेशों द्वारा बड़े हों, वे अणुमहान हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार जीव, धर्म और अधर्म असंख्यप्रदेशी होने से अणुमहान हैं; आकाश अनन्त प्रदेशी होने से (19)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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