SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन अणुमहान है; और त्रि-अणुक स्कन्ध से लेकर अनन्ताणुक स्कन्ध तक के सर्व स्कन्ध बहुप्रदेशी होने से अणुमहान हैं। (२) अणुभ्याम् महान्त: अणुमहान्त: अर्थात् जो दो प्रदेशों द्वारा बड़े हों वे अणुमहान हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार द्वि-अणु के स्कन्ध अणु महान हैं। (३) अणवश्च महान्तश्च अणुमहान्त: अर्थात् जो अणुरूप एकप्रदेशी भी हों और महान-अनेकप्रदेशी भी हों वे अणुमहान हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार परमाणु अणुमहान है; क्योंकि व्यक्तिअपेक्षा से वे एकप्रदेशी हैं और शक्तिअपेक्षा से भी उपचार से अनेकप्रदेशी हैं। इसप्रकार उपर्युक्त पाँचों द्रव्य अणुमहान होने से कायत्ववाले हैं ह्र ऐसा सिद्ध हुआ। कालाणु का अस्तित्व है, किन्तु किसीप्रकार भी कायत्व नहीं है, इसलिए वह द्रव्य है; किन्तु अस्तिकाय नहीं है।' आचार्य जयसेन अपनी तात्पर्यवृत्ति टीका में जो लिखते हैं, उसका भाव इसप्रकार है ह्न “अनन्त जीवद्रव्य, अनन्त पुद्गलद्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य ह्र ये पंचास्तिकाय अपने सामान्य-विशेष अस्तित्व में निश्चित हैं और अपनी सत्ता से भिन्न नहीं हैं अर्थात् जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप है, वह सत्ता है और जो सत्ता है, वही अस्तित्व कहा जाता है। वह अस्तित्व सामान्य-विशेषात्मक है। (१) सभी पदार्थ हैं, इस अपेक्षा से सभी में सामान्यपना है एवं प्रत्येक भिन्न-भिन्न भी हैं, इस अपेक्षा वे विशेष हैं। (२) द्रव्य में त्रिकाल सत्ता सामान्य है एवं वर्तमानावस्था विशेष है; अथवा ध्रुवपना सामान्य है एवं उत्पाद-व्ययपना विशेष है; इसप्रकार प्रत्येक पदार्थ अपनी सत्ता सामान्य एवं विशेष से भिन्न नहीं है। पंचास्तिकाव : भेद-प्रभेद (गाथा १ से २६) जो उत्पाद-व्ययरूप है, वह सत्ता है और जो सत्ता है, उसे अस्तित्व कहते हैं और जो अस्तित्व है, वह सामान्य एवं विशेषात्मक है। पाँचों अस्तिकाय अपने-अपने अस्तित्व में है। अस्तित्व अपने द्रव्य से अभिन्न है। प्रत्येक द्रव्य का अस्तित्व उस द्रव्य से भिन्न नहीं है, कर्मपरमाणु उस द्रव्य से (पुद्गल द्रव्य से) भिन्न नहीं है। एकमेक हैं, पर आत्मा से भिन्न हैं। तात्पर्य यह है कि ह्र जैसे दूध और पानी एक साथ हैं, ऐसा कहने पर भी जैसे दूध और पानी भिन्न-भिन्न वस्तुएँ हैं; वैसे ही एक क्षेत्र में रहते हुए कर्म मूर्त और आत्मा अमूर्त हैं, वे दोनों भिन्न हैं। कर्म का भिन्नपना आत्मा के कारण नहीं है। आत्मा में विकार का उत्पाद आत्मा के कारण है, कर्म के कारण नहीं। इसप्रकार सच्ची श्रद्धा करने से शान्ति मिलती है। सत्ता गुण स्वयं के द्रव्य से भिन्न नहीं है। सत्ता से सत्तावान अभिन्न है। इसप्रकार प्रत्येक वस्तु की सत्ता स्वयं से अभेद है। किसी बर्तन में रखी हुई वस्तु के समान नहीं है। जैसे थाली में लड्डू है, डिब्बे में तेल है, वैसे द्रव्य में सत्ता गुण नहीं है, बल्कि जिसप्रकार तेल में चिकनाहट रहती है, उसीप्रकार द्रव्य में सत्ता रहती है। घड़े के स्पर्श, रस, गंध, वर्ण घट से भिन्न नहीं। जिसप्रकार अग्नि और ऊष्णता एक है ह्न भिन्न नहीं; उसीप्रकार आत्मा और उसका सत्ता गुण भिन्न नहीं है, बल्कि एकमेक है। आत्मा एक ओर रहे एवं उसकी सत्ता कहीं और रह जाय ऐसा प्रदेशभेद नहीं है, सत्ता और द्रव्य अभेद है। आत्मा रागरहित है ह ऐसा निर्णय करने पर जो भावश्रुतज्ञान प्रगट होता है, उसके दो भेद हैं ह्र १. द्रव्यार्थिकनय, २. पर्यायार्थिक नय। __ द्रव्यार्थिकनय ह्र जो ज्ञान का अंश आत्मा अथवा परमाणु के सामान्य धर्म को लक्ष में लेता है, त्रिकाली शक्ति को लक्ष में लेता है, उस ज्ञान के अंश को द्रव्यार्थिकनय कहते हैं। पर्यायार्थिकनय हू जो ज्ञान का अंश आत्मा अथवा परमाणु की (20)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy