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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन वास्तव में तो अपने ज्ञानस्वभाव में एकाग्र होने पर मिथ्यात्व, राग और द्वेष उत्पन्न होते ही नहीं हैं, इसी को 'मिथ्यात्व, राग और द्वेष का नाश हो गया ह ऐसा कहा जाता है। इसप्रकार अपने में सच्चा ज्ञान प्रगट होना ज्ञानसमय है। ज्ञानसमय कहो, भावश्रुतज्ञान कहो, भाव आगम कहो ह यह सब एक ही है। जब वह ज्ञानसमय सम्यग्ज्ञानी जीव के प्रगट होता है तो जैसा शास्त्र का कहना है, वैसा ही उसने किया, अतः शब्दसमय द्वारा ज्ञान हुआ, ऐसा कहा जाता है। सम्यग्ज्ञान द्वारा जो पदार्थ जाने जाते हैं, वे अर्थसमय हैं। अर्थसमय या पदार्थसमय दोनों एक ही हैं। शब्द वाचक हैं और पदार्थ वाच्य है। यहाँ अर्थसमय की व्याख्या स्पष्ट है कि ज्ञान द्वारा जो पदार्थ जाना गया, उसे अर्थसमय कहते हैं। स्वभाव के आश्रय से मिथ्यात्व का नाश होकर जो सम्यग्ज्ञान उत्पन्न हुआ, वह ज्ञान ही पदार्थों को यथार्थ जानता है। ध्यान रहे, ज्ञान ज्ञेयों से अर्थात् पदार्थों से नहीं होता। ‘पंचास्तिकाय' इस शब्दसमय से भी ज्ञान नहीं होता; ज्ञानसमय में अर्थसमय तथा शब्दसमय स्वत: ज्ञात हो जाते हैं। पंचास्तिकाय पदार्थ सम्यग्ज्ञान द्वारा ज्ञात होते हैं। पदार्थों से तथा शब्दसमय से पंचास्तिकाय का ज्ञान नहीं होता। आत्मा ज्ञानस्वभावी है ह ऐसा ज्ञान-श्रद्धान होने पर सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है और वह सम्यग्ज्ञान शब्दसमय के भाव को तथा पदार्थों को जान लेता है। ___ज्ञानसमय के बिना शब्दसमय और अर्थसमय का यथार्थज्ञान होता ही नहीं है । संक्षेप में कहें तो ज्ञानी जब स्वयं सम्यग्ज्ञान प्रगट करता है, तब आगम तथा पदार्थों को यथार्थ जाना कहा जाता है। अर्थसमय के दो भेद हैं ह्न १. पंचास्तिकायसमूहरूप लोक, २. अकेला आकाशरूप अलोक। अर्थसमय में पंचास्तिकाय को लोक कहा है। काल अस्ति है, उसका लोक में अभाव नहीं है; परन्तु वह अस्तिकाय नहीं है। परमाणु एक होने पर भी रूखे-चिकने रूप योग्यता के कारण उपचार से अस्तिकाय कहलाता है, जबकि कालाणु में ऐसी रूखे चिकने की योग्यता नहीं है; क्योंकि उसमें पंचास्तिकाव ही समय है (गाथा १ से २६) स्पर्श गुण ही नहीं है, अतः वह उपचार से भी अस्तिकाय नहीं कहलाता है। फिर भी वह लोक में शामिल है। __ भावश्रुतज्ञान की एक समय की पर्याय में अनन्त द्रव्यों को, अनन्त क्षेत्र को, अनादि-अनन्त काल को तथा अनन्त भावों को परोक्ष जानने की ताकत है। अर्थसमय में लोकालोक आ गया। अर्थसमय का क्षेत्र लोकालोक जितना है और ज्ञानसमय की अथवा भावश्रुतज्ञान की व्यापकता मात्र अपने आत्मा के असंख्यप्रदेशों तक ही सीमित है। इसप्रकार अर्थसमय का क्षेत्र ज्ञानसमय की अपेक्षा बड़ा है; फिर भी ज्ञान की पर्याय लोकालोक का ज्ञान कर लेती हैं; अतः ज्ञानसमय की महत्ता विशेष है। सम्यग्ज्ञान की एक समय की पर्याय में जब इतनी ताकत है तो फिर केवलज्ञान की कितनी ताकत होगी ? वह तो अनन्त को एक समय में प्रत्यक्ष जान लेता है। परन्तु यहाँ छद्मस्थ के ज्ञानसमय की बात है। एक ज्ञानगुण की एक समय की पर्याय की इतनी ताकत है तो फिर वह पर्याय जिसके आश्रय से प्रगट होती है, ऐसे अनन्त गुणों के भण्डार आत्मद्रव्य की क्या बात करना ! अहो! मेरा ज्ञानस्वभाव इतनी महिमावाला है। ह्र इसप्रकार जिसे अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा की महिमा आती है, उसे सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है और वह सभी पदार्थों को यथार्थ जान लेता है तथा क्रमश: वीतरागता प्रगट करके केवलज्ञान प्राप्त करता है। द्रव्य-आगम (द्रव्यसमय) का ज्ञान भाव-आगम (ज्ञानसमय) से होता है। भाव-आगम का उत्पाद मिथ्यात्व के नाश से होता है। मिथ्यात्व का नाश ज्ञानस्वभावी आत्मा के आश्रय से होता है और वह भाव-आगम सभी पदार्थों को जान लेता है।" ___ इसप्रकार गुरुदेवश्री कानजीस्वामी ने विस्तार से स्पष्ट कर दिया है कि ह्र ज्ञानसमय शब्दसमय तथा अर्थसमय ह्न दोनों को जानता है; अत: ज्ञानस्वभाव की महिमा है। भावश्रुतज्ञान से ही पंचास्तिकाय समझ में आते हैं। (18)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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