SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा - १०१ विगत गाथा में निश्चय एवं व्यवहार से कालद्रव्य का कथन किया। अब प्रस्तुत गाथा में काल के 'नित्य' और 'क्षणिक' ह्र ऐसे दो विभागों का कथन करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र कालो त्तिय ववदेसो सब्भावपरूवगो हवदि णिच्चो । उप्पण्णप्पद्धंसी अवरो दीहंतरट्ठाई । । १०१ । (हरिगीत) काल संज्ञा सत प्ररूपक नित्य निश्चय काल है। उत्पन्न-ध्वंसी सतत् रह व्यवहार काल अनित्य है ॥ १०१ ॥ 'काल' ऐसा व्यपदेश (कथन) सद्भाव का प्ररूपक है, इसलिए निश्चयकाल नित्य है । दूसरा व्यवहार काल उत्पन्न-ध्वंसी है। वह व्यवहारकाल क्षणिक होने पर भी प्रवाह की अपेक्षा दीर्घस्थिति का भी कहा जाता है। टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि ह्न काल के नित्य व क्षणिक ह्र ऐसे दो विभाग हैं। "यह काल है, यह काल है" ऐसा करके जिस द्रव्य विशेष का कथन किया जाता है, वह द्रव्य अपने सद्भाव को प्रगट करता हुआ नित्य है तथा जो उत्पन्न होते ही नष्ट होता है वह व्यवहार काल उसी द्रव्य विशेष की 'समय' नामक पर्याय है; परन्तु वह क्षणिक होने पर भी अपनी संतति की दृष्टि से उस दीर्घकाल तक रहने वाला कहने में दोष नहीं है। इसी कारण आवलिका, पल्योपम, सागरोपम इत्यादि व्यवहारकाल कहने का भी निषेध नहीं है। इसी गाथा के भाव को कवि हीराचन्दजी काव्य में कहते हैं : ह्र ( सवैया इकतीसा ) 'काल' इन दोड़ आंक मध्यवाची अरथ मैं, निहचै सरूप जानौ नित्यकाल चित है। (175) कालद्रव्य (गाथा १०० से १०२ ) उत्पन्न होइ नारौं द्रव्य का विषै भासै, समय नाम पर्याय -काल सो अनित्य है ॥ सोई काल छिनभंगी संतति नय अंगी है, दीर्घ लौं सथाइ - पल्य- सागर उदित है । निचै है काल नित्य द्रव्यरूप मित तातैं, ३३३ विवहार छिन साथै सोई समचित है । । ४३७ ।। ( दोहा ) अपने सहज सुभाव सौं, रहे सुनिहचै होड़ । पर की छाया जहँ परै, तहँ विवहार विलोड़ । । ४३८ ।। कवि कहते हैं कि ह्र 'काल' निश्चयकाल का सूचक है, अस्तिवाचक है तथा नित्य है और कालद्रव्य पर्याय से अनित्य है । पल्य, सागर आदि व्यवहार काल है । निश्चय काल अविनाशी है तथा व्यवहार काल क्षणिक है। इसी भाव को गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ने व्याख्यान में कहा है कि काल शब्द निश्चयकाल का सूचक है। जिसतरह जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म द्रव्य हैं, उसीतरह 'काल' भी द्रव्य है, काल के असंख्य कालाणु हैं। व्यवहार काल में सबसे सूक्ष्म 'समय' है। वह एक समय की अवस्था है । वह उत्पन्न-ध्वंसी है तथा निश्चय कालाणु की पर्याय है। उन्हें 'समय' की भूत, भविष्य व वर्तमानरूप परम्परा से कहा जाय तो उससे नक्की होता है कि निश्चयकाल अविनाशी है तथा व्यवहारकाल क्षणिक हैं। काल वस्तु है, पर उसके काय नहीं हैं; क्योंकि वह एक प्रदेशी है तथा काय बहुप्रदेशी होती है। कालद्रव्य में रुखापन व चिकनापन नहीं है। " इसकारण इस गाथा में निश्चयकाल एवं व्यवहार का कथन किया है । इनमें निश्चयकाल नित्य है । यद्यपि व्यवहारकाल क्षणिक हैं। तथापि प्रवाह की अपेक्षा दीर्घ स्थिति का कहा जाता है।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy