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________________ गाथा-१०२ विगत गाथा में कहा गया है कि ह्र कालद्रव्य द्रव्य नित्य व क्षणिक होने से यद्यपि दो विभाग रूप हैं, तथापि प्रवाह की अपेक्षा दीर्घ स्थिति का भी कहा जाता है। अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्न काल द्रव्य को भी द्रव्यपना तो है, परन्तु एकप्रदेशी होने से कायपना नहीं है। मूल गाथा इसप्रकार हैह्न एदे कालागासा धम्माधम्मा य पोग्गला जीवा। लब्भंति दव्वसण्णं कालस्स दु णत्थि कायत्तं।।१०२।। (हरिगीत) जीव पदगल धर्म-अधर्म काल अर आकाश जो। हैद्रव्य संज्ञा सर्व की कायत्व है नहिं काल को।।१०२|| यह काल, आकाश, धर्म-अधर्म पुद्गल और जीव सब द्रव्य संज्ञा को प्राप्त करते हैं, किन्तु काल द्रव्य को कायपना नहीं है। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह यह काल को कायपने के विधान का तथा अस्तिकायपने के निषेध का कथन है। जिसप्रकार जीव, पुद्गल धर्म-अधर्म और आकाश को द्रव्य के समस्त लक्षणों का सद्भाव होने से वे द्रव्यपने को प्राप्त करते हैं, उसीप्रकार काल भी द्रव्य संज्ञा को प्राप्त करता है, किन्तु काल में अन्य द्रव्यों की भाँति बहुप्रदेश नहीं हैं। यद्यपि उन पाँच द्रव्यों की संख्या भी लोकाकाश के प्रदेशों जितनी है, परन्तु कालद्रव्य के एकप्रदेशीपने के कारण अस्तिकायपना नहीं है। इसी कारण ह्र ऐसा होने से ही यहाँ पंचास्तिकाय के प्रकरण में काल का कथन मुख्यतः से नहीं किया गया है। मुख्यतः तो पाँच अस्तिकायों का ही है। काल को भी उन्हीं में अन्तर्भूत करके इसका संक्षिप्त उल्लेख किया है। इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र (सवैया इकतीसा) जैसै जीव पुग्गल औ धर्माधर्म व्योम नाम, दर्व-भेद लच्छिन तें दर्वरूप ढलै है। कालद्रव्य (गाथा १०० से १०२) तैसे काल मिलैं छहाँ दर्व नाम ए विसेष, काल बिना काय अनू लोक मांहि रलै है। याते पंच अस्तिकाय विर्षे मुख्य काल नाहिं, परिनाम परजै” काल अनु भले हैं। सोई काल छिनभंगी संतति नय अंगी है, दीर्घलौ सथाइ-पल्य सागर उदित है। निहचै है काल नित्य द्रव्य रूप मित तातें, विवहार छिन साधै सोई समचित है।।४३७ ।। यद्यपि काल एक प्रदेशी है; परन्तु उसमें धर्म आदि की भाँति ही प्रदेशों अपेक्षा एक प्रदेशी के सिवाय व्यवहारनय से सभी लक्षण पाये हैं, अतः वह भी द्रव्य है। ___इसी गाथा पर प्रवचन करते गुरुदेव श्री कानजीस्वामी भावार्थ में कहते हैं कि ह्र कालाणु रत्नों की राशि जैसे छूटे पड़े हैं। कालाणु एक प्रदेशी हैं, जबकि लोकाकाश के प्रदेश असंख्य हैं, इस कारण कालाणु द्रव्य भी असंख्य हैं तथा लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु रहता है। इसकारण काल कायवान नहीं है। इसी कारण इस पंचास्तिकाय ग्रन्थ में उसका विस्तार से कथन नहीं किया है, फिर भी पाँचों अस्तिकायों के साथ गर्भित रूप से तो काल द्रव्य का कथन आ ही गया है; क्योंकि जीव एवं पुद्गलों के परिणाम में समय आदि व्यवहार काल ज्ञात हो ही जाता है। व्यवहारकाल जानने में आता है तो उससे निश्चय काल का अनुमान हो जाता है। इसीलिए पंचास्तिकाय में कालद्रव्य को भी गर्भित जानना चाहिए।' जिसतरह धर्म अधर्म आदि में गुण-पर्यायें हैं, वैसे ही काल खण्ड में भी गुण-पर्यायें हैं। इसप्रकार यहाँ आगम और युक्ति से कालद्रव्य की सिद्धि की गई है। (176) १. श्री प्रवचनप्रसाद नं. १८०, दिनांक १९-४-५२ के आगे, पृष्ठ १४४०
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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