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________________ गाथा-८४ विगत गाथा में कहा गया है कि ह्र 'धर्मद्रव्य अनादि-अनन्त अरूपी वस्तु है। वह जीव व पुद्गलद्रव्य में गति करने में निमित्त होती है। यद्यपि यह धर्मद्रव्य निश्चय से अखण्डित है, तथापि व्यवहार से यह असंख्यप्रदेशी है। अब प्रस्तुत गाथा में भी धर्मद्रव्य के ही शेष स्वरूप का कथन किया है। मूल गाथा इसप्रकार है । अगुरुलघुगेहिं सया तेहिं अणंतेहिं परिणदं णिच्चं। गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूद सयमकज्ज।।८४।। (हरिगीत) धर्मास्तिकाय अवर्ण अरस अगंध अशब्द अस्पर्श है। लोकव्यापक पृथुल अर अरखण्ड असंख्य प्रदेश है।।८४|| धर्मास्तिकाय द्रव्य अनन्त अगुरुलघु (अंश) रूप सदैव परिणमित होता है, नित्य है, गतिक्रिया युक्त और निमित्तरूप है तथा स्वयं अकार्य है। _आचार्य श्री अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्र “इस गाथा में भी धर्मद्रव्य का ही शेष कथन है। अन्य द्रव्यों की भाँति धर्मास्तिकाय में भी अगुरुलघुत्व नाम का स्वभाव है वह स्वभाव धर्मास्तिकाय को स्वरूप में रहने के कारणभूत है। उस धर्मास्तिकाय के अविभाग प्रतिच्छेदों को अगुरुलघु गुण (अंश) कहा है, जोकि प्रतिसमय होने वाली षट्स्थानपतित बृद्धि हानि वाले अनन्त हैं। उनरूप सदैव परिणमित होने से वह धर्म द्रव्य उत्पाद व्यय स्वभाव वाला है तथापि स्वरूप से च्युत नहीं होता, इस कारण नित्य है। गतिक्रिया परिणाम को उदासीन-अविनाभावी सहाय मात्र होने से गतिक्रिया में कारणभूत है। स्वयं सिद्ध होने से स्वयं अकार्य है।" धर्म द्रव्यास्तिकाय व अधर्मद्रव्यास्तिकाय (गाथा ८३ से ८९) कवि हीराचन्दजी कविता में कहते हैं। (दोहा) अगुरु-लघुक-गुन अनगिनत, तिनकरि परिनत नित्त । गतिकारन गतिवंत कौं, आप आकारज वित्त ।।३७२ ।। (सवैया इकतीसा) उतपाद नास ध्रौव्य सत्ता का सरूप सारा, गतिकौं सहायकारी कारण विथारा है। अस्तिख्य वस्तु तामैं जगमैं अकारज है, धर्म-दर्वरूप ऐसा पंडित विचारा है।।३७३ ।। (दोहा) गति सहकारी गुन जहाँ, किरिया रहित परिनाम । लोकाकास प्रमान नित, धरम दरव अभिराम।।३७४ ।। उक्त पद्यों में कहा है कि ह्न धर्म द्रव्य अपने अनगिनत अगुरुलघुक अंशों रूप परिणमित होता है, तथा जीव व पुद्गल द्रव्यों की गति क्रिया में हेतु है। यह अगुरुलघुत्व नामक गुण है, प्रत्येक द्रव्य है। उसी से धर्मद्रव्य में भी समय-समय अपनी पर्याय में अनन्त अविभागी परिच्छेद रूप परिणमन हुआ करता है। इसी बात को गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र प्रत्येक द्रव्य में अगुरुलघुत्व नाम का गुण है, उसी से धर्मद्रव्य में भी समय-समय अपनी पर्याय में अनन्त अविभाग परिच्छेद रूप परिणमन हुआ करता है। तथा द्रव्य टंकोत्कीर्ण अविनासी है। तथा जीव व पुद्गल जो अपनी योग्यता से गमन करते हैं, उनके उस गमनरूप परिणमन में धर्मद्रव्य निमित्त कारण होता है। धर्मद्रय का स्वरूप जानकर यह धर्म द्रव्य जैसा अनादि अनन्त है। आत्मा भी अनादि जैसा ही है। ऐसा नक्की कर।" (156) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७३, दिनांक १२-४-५२, पृष्ठ-१३७२
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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