SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा - ८३ विगत गाथा में कहा गया है कि ह्न पाँच इन्द्रियों द्वारा पाँच प्रकार के विषय जो भोगने में आते हैं, वे जड़ हैं, मूर्तिक हैं तथा पाँचों इन्द्रियाँ और मन भी जड़ हैं। अब प्रस्तुत गाथा में धर्मास्तिकाय का व्याख्यान किया जाता है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असहमफ्फासं । लोगागाढं पुट्ठ पिहुलमसंखादियपदेसं ॥ ८३ ॥ (हरिगीत) धर्मास्तिकाय अवर्ण अरस अगंध अशब्द अस्पर्श है। लोकव्यापक पृथुल अर अखण्ड असंख्य प्रदेश हैं ॥ ८३ ॥ धर्मास्तिकाय अस्पर्श, अरस, अवर्ण, अगंध और अशब्द है। लोक व्यापक है, अखण्ड, विशाल और असंख्य प्रदेशी हैं। टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि ह्न यह धर्मास्तिकाय के स्वरूप का कथन है। इसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण का अभाव होने से यह धर्मद्रव्य अमूर्त स्वभाव वाला है, इसलिए अशब्द है। समस्त लोकाकाश में व्याप्त होने से लोक व्यापक है, अयुतसिद्ध अर्थात् अभिन्न प्रदेश वाला होने से अखण्ड है। निश्चय से एक प्रदेशी होने पर तथा अविभाज्य होने पर व्यवहार से असंख्य प्रदेशी है। यह धर्मद्रव्य अनादि अनन्त अरूपी वस्तु है तथा जीव और पुद्गल की गति में निमित्त होता है। जिसप्रकार तिलों में तैल व्याप्त है, आत्मा में ज्ञान व्याप्त है, सिद्ध क्षेत्र में सिद्धजीव व्याप्त हैं; अभव्य जीवों में राग व मिथ्यात्व व्यापता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण लोक में अचेतन, अरूपी धर्मद्रव्य व्याप्त है। आत्मा से जुदा है। आत्मा के ज्ञान का ज्ञेय है। " (155) धर्म द्रव्यास्तिकाय व अधर्मद्रव्यास्तिकाय (गाथा ८३ से ८९) इस गाथा के भाव को कवि हीरानन्दजी पद्य में कहते हैं ह्र (दोहा) अरस अवर्न अगंध है, सवद विना बिन फास । सो मूरति मूरति जहाँ सो पुग्गल अभिधान ।। ३६९ ।। ( सवैया इकतीसा ) वरनादिक गुण वीस तिनका अभाव जामैं, सोई धर्मास्तिकाय अमूरति वखानी हैं। याही तैं असबद और सकल लोक व्यापी है। २९३ लोक अवगाही तातैं सारे जहाँ ताही है । अयुतसिद्ध सगरे प्रसिद्ध विसतारी औ संभावना है अपार तातैं लोकाकास माहीं है। निचै अखंड एक देसी, व्यवहार माहीं, असंख्यात् परदेसी स्याद परछाहीं है । । ३७० ।। ( दोहा ) धर्म-अस्तिकाया लसै, लोकाकास प्रमाण । एक अखंड अनाद अकृत अनंत अमान ।। ३७१ ।। उक्त पद्यों में कवि ने कहा है कि ह्न धर्मास्तिकाय द्रव्य अरस, अरूप, अगंध, अस्पर्श एवं अशब्द है तथा अमूर्तिक है, लोकव्यापी है, निश्चय से अखण्ड एवं व्यवहार से असंख्यात प्रदेशी है । तथा पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है। धर्मद्रव्य में पुद्गल जैसे बीस गुण नहीं हैं वह अमूर्तिक हैं। वह धर्मद्रव्य अशब्द और सकल लोकव्यापी है, निश्चय से अखण्ड तथा व्यवहार से असंख्यात प्रदेशी हैं। एक है, अखण्ड है, अनादि है, अकृत एवं अनन्त हैं। अपने प्रवचन में गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न “आत्मा असंख्य प्रदेशी, अरूपी, अचेतन व कायवंत है। दोनों के प्रदेशों की संख्या समान है। धर्मद्रव्य निश्चय से अखण्डित है तथापि व्यवहार से असंख्य प्रदेशी है। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७२, पृष्ठ- १३७१, दि. १३ - ४ ५२ के पहले का प्रवचन ।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy