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________________ गाथा-८५ विगत गाथा में धर्मास्तिकाय का ही व्याख्यान किया गया है। अब प्रस्तुत गाथा में भी धर्मद्रव्य का ही स्वरूप उदाहरण सहित समझाया है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्न उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहकरं हवदि लोए। तह जीवपोग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणाहि।।८५।। (हरिगीत) गमन हेतुभूत है जगत में, ज्यों जल होता मीन को। त्यों धर्म द्रव्य है गमन हेतु जीव पुद्गल द्रव्य को।।८५|| जिसप्रकार लोक में पानी मछलियों को गगन में अनुग्रह करता है, अर्थात् निमित्त होता है, उसीप्रकार धर्मद्रव्य जीव एवं पुद्गलों को गमन में निमित्त होता है ह्र ऐसा जानो। आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि यह धर्मद्रव्य के गति हेतुत्व का दृष्टान्त है। जिसप्रकार पानी स्वयं गमन न करता हुआ और पर को अर्थात् मछलियों को गमन न कराता हुआ स्वयमेव गमन करती हुई मछलियों को उदासीन अविनाभावी सहायरूप (कारण मात्र रूप) गमन में निमित्त होता है, उसी प्रकार धर्मास्तिकाय भी स्वयं गमन न करता हुआ और परद्रव्य को गमन न कराता हुआ स्वयमेव गमन करते हुए जीवों एवं पुद्गलों को उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्र रूप से गमन में अनुग्रह करता है अर्थात् गमन में मात्र निमित्त बनता है? इसी बात को कवि हीरानन्दजी इसप्रकार कहते हैं। (सवैया इकतीसा ) जैसे जल चलै नाहि मीन कौं चलावे नाहि, स्वयंमेव चलै मीन ताकौं सहकारी है। धर्म द्रव्यास्तिकाय व अधर्म द्रव्यास्तिकाय (गाथा ८३ से ८९) २९७ तैसै एक धर्मद्रव्य चलै न चलावै काहु, पुग्गल जीव चलै तिनही का सहायी है। मीन गति क्रियाचारी पानी का निमित्त पाय, अविनाभाव दौनौं के उदासीन भारी है। ऐसैं धर्मदर्व उदासीन रूप लोक मध्य, जथारूप जैनी जानै वस्तुता सिरारी है।।३७६ ।। (दोहा) जस नर-पसु कौं मही, चलनैं को आधार । तैसैं पुग्गल जीव कौं, धरम द्रव्य सहकार ।।३७७।। जिसतरह जल स्वयं गमन करती हुई मछली को चलाने में निमित्त होता है, उसीप्रकार धर्म स्वयं नहीं चलता है एवं जीव व पुद्गल को नहीं चलाता; किन्तु जब जीव व पुद्गल स्वयं गमन करते हैं तब धर्मद्रव्य गमन में निमित्त बनता है। उक्त गाथा पर व्याख्यान करते हुए श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र "यहाँ धर्मद्रव्य का ज्ञान कराते हैं। जिसप्रकार मछलियों को गमन करने में पानी निमित्तमात्र है। पानी मछली को जबरदस्ती या प्रेरणा देकर चलाता नहीं है, बल्कि जब मछली अपनी तत्समय की योग्यता से स्वयं चलती है तब पानी उदासीन निमित्त अविनाभावी रूप से बनता है। ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। उसी प्रकार जीव तथा पुद्गलों को चलने में धर्मद्रव्य निमित्त होता है। मूल पाठ में जो ‘अनुग्रह' शब्द है, उसका अर्थ निमित्त रूप से सहकारी कारण है। __ कहने का तात्पर्य यह है कि मछली के गमन के साथ-साथ जिसप्रकार पानी नहीं चलता, उसी प्रकार जीव व पुद्गलों के साथ धर्मद्रव्य चलता नहीं है। मात्र गमन में निमित्त होता है। ऐसा ही पानी का स्वभाव है। जब मछली अपनी तत्समय की योग्यता से चलती है, उसीसमय पानी पर (157)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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